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चतुर्थस्तम्भः ।
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व्याहतम् -- जहां पूर्वके कथन करके परका कथन बाध्या जावे, सो व्याहत. यथा "कर्म चास्ति फलं चास्ति कर्त्ता नास्ति च कर्म्मणामित्यादि” - कर्म भी है और कर्मोंका फलभी है, परं कर्मोंका कर्ता नहीं है. इत्यादि - ११
अयुक्तम् — जो प्रमाणसें सिद्ध न होवे, यथा " तेषां कटतटभ्रष्टैर्गजानां मदबिन्दुभिः ॥ प्रावर्त्तत नदी घोरा हस्त्यश्वरथवाहिनीत्यादि " - तिन हस्तियोंके गंडस्थलसे भ्रष्ट - हुए झरे हुए मदबिन्दुओंकरके हस्ति अश्व रथांको वहा देनेवाली घोर नदी, प्रवर्त्तती भई चलती भई . इत्यादि - १२ |
क्रमभिन्नम् — जहां क्रमकरके कथन न होवे, जैसें स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षुः, और श्रोत्रांके, अर्थ ( विषय ) स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, और शब्द, ऐसे कथनमें स्पर्श, रूप, शब्द, गंध और रस, ऐसे कहना, सो क्रमभिन्न. - १३ | वचनभिन्नम् — वचनका व्यत्यय होना, यथा वृक्षावेतौ पुष्पिता इत्यादि - १४ |
विभक्तिभिन्नम् — विभक्तिका व्यत्यय होना, अर्थात् प्रथमादिविभक्तिके स्थान में द्वितीयादिका कहना, यथा एष वृक्षमित्यादि - १५
लिंगभिन्नम् -- लिंगव्यत्यय होना, स्त्रीलिंगादिके स्थान में पुलिंगादिका होना, यथा अयं स्त्रीइत्यादि - १६ ।
अनभिहितम् - - अपने सिद्धांतमें जो नहीं कहा है, तिसका कथन करना, सो अनभिहित जैसें सप्तम पदार्थ, दशम द्रव्य, वा वैशेषिककों; प्रधान और पुरुषसें अधिक सांख्यमतको; चार सत्यसें अधिक शाक्यको. इत्यादि - १७ ।
अपदम् -- अन्य छंदमें अन्य छंदका कहना, जैसे आर्यापदमें वैतालीय पदका कहना - १८
स्वभावहीनम् -- जो वस्तुके स्वभावसें अन्यथा कहना, यथा अग्नि शीतल, मूर्त्तिमत् आकाश. इत्यादि - १९ । व्यवहितम् -- जहां प्रकृतको छोडके,
अप्रकृतको विस्तार करके कथन
करके, फिर प्रकृतका कथन करना. - २०
कालदोषः -- अतीतादिकालका व्यत्यय करना, जैसें रामचंद्र वनमें प्रवेश करतेभये, इसस्थानमें प्रवेश करते हैं- इत्यादि - २१ |
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