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________________ चतुर्थस्तम्भः । १३९ व्याख्या - कोई सुगत बुध हमारा पिता नहीं है, और न अन्य देवते हमारे शत्रु हैं, और न तिन देवताओंने हमको धन दिया है, तैसेही जिन अरिहंत महावीरने भी कोई हमको धन नहीं दिया है, और न कणाद, गौतम, पतंजलि, जैमिनि, कपिलादिकोंने हमारा किंचित् मात्रभी धन हरा है; किंतु श्रीमहावीर भगवान् एकांत जगत्के हितका करनेवाला है. क्यों कि, तिनके वचन अमल, बत्तीस दूषणोंसें रहित, और अष्टगुणोंकरी संयुक्त हैं. और श्रद्धापूर्वक सुणनेवाले, और धारनेवाले श्रोताजनोंके सर्व पापमलके हरनेवाले हैं; इसवास्ते तिस श्रीमहावीरकी भक्तिवाले हम हुए हैं. अब पूर्वोक्त दूषण और गुण शिष्यजनोंके अनुग्रहके वास्ते लिखते हैं. अलियमुवघायजणयं निरच्छयमवच्छयं छलं दुहिलं निस्सार मधियमृणं पुणरुत्तं वाहयमजुत्तं च ॥ १ ॥ कमभिन्नं वयणभिन्नं विभत्तिभिन्नं च लिंगभिन्नं च अणभिहियमपयमेव य सभावहीणं ववहियं च ॥ २ ॥ काल जति च्छबिदोसो समयविरुद्धं च वयणमित्तं च अच्छावती दोसो य होइ असमास दोसो य ॥ ३॥ उवमारूवगदोसो निद्देसपदच्छसंधिदोसो य एए उत्तदोसा बत्तीसं होंति नायव्वा ॥ ४ ॥ इत्यावश्यक बृहद्वृत्तौ . [ भावार्थः ] अनृतम् - अणहोया, कहना, जैसें सर्वजगत्का कारण प्रधान प्रकृति है, और सद्भूतका निन्हव (निषेध) करना, जैसें आत्मा नहीं है इत्यादि - १ | उपघात जनकम् - जिसमें जीवहिंसाका प्रतिपादन होवे, यथा, वेदविहिता हिंसा धर्मायेत्यादि - २ | निरर्थकम् - वर्णक्रमनिर्देशवत्, यथा “ आरादेस्” यहां आर्, आत्, एस्, यह आदेशमात्रकाही कथन है, न कि अभिधेयकरके किसी अर्थकी प्रतीति होवे है, इसवास्ते निरर्थक; डिच्छादिवत् - ३ | * बुधनाम अर्हन्काही है - बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चितबुद्धिबोधादितिवचनात् ॥ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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