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________________ चतुर्थस्तम्भः । रागी च यो भवति यश्च विमुक्तरागः पूज्यस्तयोः क इह ब्रूत चिरं विचिन्त्य ॥ २७ ॥ व्याख्या - जो एक तो दयाकों छोड़के परके बध करणेकेवास्ते उद्यत हो रहा है, और जो एक जगत्के त्राणकेतांइ अर्थात् जगद्वासि जीवोंकी रक्षाके वास्ते शरणकों प्रवृत्त हुआ है, अर्थात् शरण्यभूत है; और जो एक रागी है, और जो वीतराग है, इन दोनोंमेंसे पूज्य - पूजनेयोग्य कौनसा देव है ? सो, हे पाठकजनो ! तुम चिरकालतक चिंतन करके कहो ॥ २७॥ शक्रं वज्रधरं बलं हलधरं विष्णुं च चक्रायुधं स्कन्दं शक्तिधरं श्मशाननिलयं रुद्रं त्रिशूलायुधम् ॥ एतान् दोषभयार्दितान् गतघृणान् बालान् विचित्रायुधान् १२९ नानाप्राणिषु चोद्यतप्रहरणान् कस्तान्नमस्येद्बुधः ॥ २८ ॥ व्याख्या -- वज्र धारण करनेवाले इंद्रको, हलमुशलके धारनेवाले बलदेवको, और चक्र धरनेवाले विष्णुको, शक्तिके धरनेवाले कार्तिकेयको, श्मशान में रहनेवाले और त्रिशूलके धरनेवाले रुद्र - महादेवको इन पूर्वोक्त दोषभयकरके पीडित, दयारहित, अज्ञानी, विचित्र प्रकारके शस्त्र रखनेवाले, और नानाप्रकार प्राणियोंकेउपर शस्त्रके उगरने वा चलानेवाले देवोंको, कौन बुध प्रेक्षावान् नमस्कार करे ? अपितु कोइभी न करे ॥ २८ ॥ न यः शूलं धत्ते न च युवतिमङ्के समदनां न शक्तिं चक्रं वा न हलमुशलाद्यायुधधरः ॥ विनिर्मुक्तं केशैः परहितविधावुद्यतधियं शरण्यं भूतानां तमृषिमुपयातोऽस्मि शरणम् ॥ २९ ॥ व्याख्या - जो देव, त्रिशूल धारण नहीं करता है, और कामयुक्त स्त्रीको अपने खोलेमें नहीं धारण करता है, तथा जो शक्तिको, और चक्रको धारण नहीं करता है, तथा जो हलमुशलादि शस्त्रोंका धारनेवाला नहीं है, तिस रागद्वेष अज्ञानकामादि सर्वक्लेशोंसें रहित, परजीवोंके हित १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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