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तत्त्वनिर्णयप्रासाद
करनेमें सावधान बुद्धिवाले, और जगद्वासि जीवोंके शरणभूत, ऋषि, सचे देवके शरणको मैं प्राप्त हुआ हूं ॥ २९ ॥
रुद्रो रागवशात् स्त्रियं वहति यो हिंस्रो ह्रिया वर्जितो
विष्णुः क्रूरतरः कृतघ्नचरितः स्कन्दः स्वयं ज्ञातिहा ॥ क्रूरार्या महिषांतकृन्नरवसामांसास्थिकामातुरा
पानेच्छुश्च विनायको जिनवरे स्वल्पोपि दोषोऽस्ति कः ॥३०॥
व्याख्या - रुद्र - महादेव रागके वशसें स्त्रीको वह रहा है, और जीवहिंसा करनेवाला है, और लज्जाकरके वर्जित है, विष्णु अतिशयकरके क्रूर और कृतघ्नचरितवाला है, स्कंद आपही अपनी ज्ञातिका हननेवाला है; निर्दय काली भवानी भैंसोंके अंत करनेवाली मनुष्योंकी चर्बी मांस हाडोंकी इच्छावाली कामातुर है; और विनायक पीनेकी इच्छावाला है, परंतु जिनवरमें पूर्वोक्त दूषणोंमेंसे स्वल्पमात्र भी कोइ दूषण है? अपितु कोइभी नहीं३० ॥ ब्रह्मा लूनशिरा हरिर्हशि सरुक् व्यालुप्तशिश्नो हरः
सूर्योप्युल्लिखितोनलोप्यखिलभुक् सोमः कलङ्काङ्कितः ॥ स्वर्नाथोपि विसंस्थुलः खलु वपुः संस्थैरुपस्थैः कृतः
सन्मार्गस्खलनाद्भवन्ति विपदः प्रायः प्रभूणामपि ॥ ३१ ॥
व्याख्या - ब्रह्माजीका शिर कटागया, विष्णुके नेत्रमें रोग हुआ, महादेवका लिंग टूट गया, सूर्यका शरीर त्राछ गया, अग्नि सर्वभक्षी हुआ, चंद्रमा कलंकवाला हुआ, और इंद्रभी सहस्रभगकरके बुरे शरीरवाला हुआ; क्योंकि, सन्मार्ग (अच्छेमार्ग ) से स्खलायमान ( भ्रष्ट ) होनेसें, प्रायः समर्थ पुरुषोंकोभी दुःख होतेहैं. इसका भावार्थ कथानकोंसें जानना. तथाहि
ब्रह्माजीका शिर क्यों कटा ? सो लिखते हैं. एकदा प्रस्तावे तेतीस - कोटी देवता एकत्र मिले, तहां सर्व परस्पर मातापितायोंका वर्णन करते हुए, तहां तिन्होंनें कहा कि, बडा आश्चर्य है जो महेश्वरके माता पिता 'जानने में नहीं आते हैं, इसवास्ते महेश्वरके मातापिता नहीं हुए हैं; ऐसा
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