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________________ १२० तत्त्वनिर्णयप्रासाद. पीने जाता है, तब पानीमें प्रवेश करके पानीकों विलोडन करके (कलुषयति) मलीन करता है, और जलमें मूत्र करता है, न तो आप पानी पीता है, और न भैंसांकों पानी पीने देता है, तैसेंही जो श्रोता व्याख्यानमें क्लेश लडाइ विग्रह कषाय करे, न तो आप सुने, और न शेषपरिषत्कों सुनने देवे, सो श्रोता भैंसेसमान जानना. ३. और जो श्रोता (पूनकवत्) पूनक बैया विजडासुघरा नामक जीवका घर, जो वृक्षके ऊपर बडी चतुराइसे बनाता है, तिस घरसें अहीरलोक घृत तपाके छानते हैं, तिस पूनकमेसें घृत तो निकल जाता है, और कूडाकचरा रह जाता है, तद्वत् पूनकवत्-पूनककी तरें गुण तो नहीं ग्रहण करता है, परंतु ( दोषं) दोषकों-अवगुणांकों (आदत्ते) ग्रहण करता है, सो पूनकसमान जानना. ४. येह चारों परिषदा उपदेश करणे योग्य नहीं हैं. यह कथन उपलक्षण मात्र है, क्योंकि नंदिसूत्र आवश्यकसूत्र बृहत्कल्पसूत्रादिकोंमें औरभी अयोग्य परिषत्का वर्णन है ॥३॥ पूर्वोक्त परिषत्कों उपदेश निरर्थक है, सो दृष्टांतद्वारा कहते हैं. जलमन्थनवत्कथितं बधिरस्येव हि निरर्थकं तस्य ॥ पुरतोन्धस्य च नृत्यं तस्माद्रहणं तु भव्यस्य ॥४॥ व्याख्या—(जलमन्थनवत् ) जलके विलोडनेकीतरें (बधिरस्य) बहिरेकों (कथितं-इव ) कथनकीतरें (च) और ( अंधस्य ) आंधेके (पुरतः) आगे (नृत्य) नाटककीतरें (तस्य ) तिस पूर्वोक्त अभव्यजनकों अयोग्य परिषत्कों उपदेश करना (निरर्थकं ) व्यर्थ है, अर्थात् जैसें जलका विलोडना व्यर्थ है, जैसे बहिरेको कहना व्यर्थ है, और जैसें आंधेके आगे नाटकका करना व्यर्थ है, तैसें तिस अयोग्य पुरुषकों उपदेशका देना व्यर्थ हैं. (तस्मात्) तिस हेतुसे (तु) निश्चयकरके (भव्यस्य ) भव्ययोग्य पुरुषका (ग्रहणं) ग्रहण करना योग्य है ॥ ४ ॥ अथ ग्रंथकार परके तरफसें आशंका करते हैं. आचार्यस्यैवतज्जाड्यं यच्छिष्योनावबुध्यते ॥ गावोगोपालकेनैव कुतीर्थेनावतारिताः॥५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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