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तृतायस्तम्भ।
१०९ तपस्वी अर्थात् दीन हीन कंगाल गरीब है, अनुकंपा करनेयोग्य है; क्योंकि, वे बिचारे दूधकी जगे आटेका धोवन अपने भक्तोंकों दूध कहके पिटारहे हैं, इस वास्ते अनुकंपा करनेयोग्य है कि, इन बिचारांकों किसीतरें सच्चा दूध मिले तो ठीक है |॥ १९ ॥
अथ स्तुतिकार परवादियोंके नाथोंने भगवान्की मुद्राभी नही सीखी है यह कथन करते हैं
वपुश्च पर्यंकशयं श्लथं च दृशौ च नासानियते स्थिरे च ॥ न शिक्षितेयं परतीर्थनाथैर्जिनेंद्रमुद्रापि तवान्यदास्ताम् ॥२० व्याख्या हे जिनेंद्र ! (परतीर्थनाथैः) परतीर्थनाथोंने (इयं) येह (तव) तेरी (मुद्रा-अपि) मुद्राभी, शरीरका न्यासरूपभी (न) नही (शिक्षिता) सीखी है तो (अन्यत्) अन्य तेरे गुणोंका धारण करना तो (आस्ताम् ) दूर रहा, कैसी है तेरी मुद्रा ? ( वपुः-च ) शरीर तो (पर्यकशयं) पर्यंकासनरूप (च) और (श्लथं) शिथिल है, (च) और (दृशौ) दोनों नेत्र ( नासानियते ) नासिकाउपर दृष्टिकी मर्यादासंयुक्त (च) और (स्थिरे) स्थिर है.
भावार्थः-यह है कि, भगवंतकी जो पर्यकासनादिरूप मुद्रा है, सो मुद्रा, योगीनाथ भगवंतने योगीजनोंके ज्ञापनवास्ते धारण करी है; क्यों कि, जितना चिरयोगीनाथ आप योगकी क्रिया नही करदिखाता है तितना चिरयोगी जनोंकों योग साधनेका क्रियाकलाप नही आता है तथा भगवंत अष्टादश दूषणरहित होनेसें निःस्पृह और सर्वज्ञ है, तिनकी मुद्रा ऐसीही होनी चाहिये; परंतु परतीर्थनाथोंने तो भगवंतकी मुद्राभी नही सीखी है; अन्यभगवंतके गुणोंका धारण करना तो दूर रहा, परतीर्थ नाथोंने तो भगवंतकी मुद्रासें विपरीतही मुद्रा धारण करी है; क्यों कि, जैसी देवोंकी मुद्रा थी, वैसीही मुद्रा तिनकी प्रतिमाद्वारा सिद्ध होती है
शिवजीने तो पांच मस्तक जटाजूटसहित, और शिरमें गंगाकी मूर्ति और नागफण, गलेमें रुंड (मनुष्योंके शिर ) की माला, और सर्प, हाथ दश, प्रथम दाहने हाथमें डमरु, दूसरे में त्रिशूल, तीसरेसें ब्रह्माजीको
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