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तत्वनिर्णयप्रासाद
अवलंबके, समाधिनाम शुक्लध्यानकों अवलंबके, (मोहजन्यां ) मोहजन्य ( करुणां - अपि) करुणाकोंभी ( न ) नही ( युगाश्रितः - असि ) युग में आश्रित हुआ है, अर्थात् मोहरूप करुणा करकेभी तूं युगयुगमें अवतार नही लेता है. जैसे गीता में लिखा है
"उपकाराय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ॥ धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगेयुगे ॥ १ ॥ ” तथाबौद्धमतेपि "ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य कर्त्तारः परमं पदम् ॥ गत्वा गच्छति भूयोपि भवन्तीर्थनिकारतः ॥ १ ॥”
अर्थः-अच्छे जनोंके उपकारवास्ते, और पापी दैत्योंके नाश करने - वास्ते, और धर्म संस्थापन करनेवास्ते, हे अर्जुन ! मैं युगयुगमें अवतार लेता हूं. | १ | हमारे धर्मतीर्थका कर्ता बुद्ध भगवान्, परमपदकों प्राप्त होकेभी, अपने प्रवर्त्तमान करे धर्मकी वृद्धिकों देखके जगद्वासीयोंकी करी पूजाके लेनेवास्ते, और अपने शासनके अनादरसें अर्थात् अपने प्रवर्ताये शासनकी पीडा दूर करनेवास्ते, इहां आता है. ऐसी मोहजन्य करुणाकों हे ईश ! तूं युगयुगमें आश्रित नही हुआ है. ॥ १८ ॥
अथ स्तुतिकार भगवंत में जैसा कल्याणकारी उपदेश रहा है, तैसा अन्यमत के देवों में नहीं है, यह कथन करते हैंजगन्ति भिन्दन्तु सृजन्तु वा पुनर्यथा तथा वा पतयः प्रवादिनाम् । त्वदेकनिष्ठे भगवन् भवक्षयक्षमोपदेशे तु परंतपस्विनः ॥ १९ ॥
व्याख्या: - ( प्रवादिनाम् - पतयः ) प्रवादीयोंके पति, अर्थात् परमतके प्रवर्त्तक देवते हरिहरादिक, ( यथा तथा वा ) जैसें तैसें प्रवादीयोंकी कल्पना समान वे देवते ( जगति ) जगतांको (भिदंतु ) भेदन करो - प्रलय करो- सूक्ष्म रूपकरके अपनेमें लीन करो; ( वा पुनः ) अथवा (सृजंतु ) सृष्टियांकों सृजन (उत्पन्न ) करो, यह कर्त्तव्य तिनके कहनेमूजब होवो, वे देवते करो, परंतु हे भगवन् ! ( त्वदेकनिष्ठे ) एक तेरेहीमें रहे हुए ( भवक्षयक्षमोपदेशेतु) संसारके क्षय करनेमें समर्थ ऐसे धर्मोपदेशके देने में तो, वे परवादीयोंके पति (स्वामी) देवते, (परं) परमउत्कृष्ट (तपस्विनः )
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