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कवि कल्पद्रुमका कर्त्ता बोपदेव भी शाकटायनको प्राचीन वैयाकरण गीनते हैं. इंद्रश्चंद्रकाशकृत्स्नापिशली शाकटायनः ।
पाणिन्यमरजैनेंद्रा जयंत्यष्टादिशाब्दिकाः ॥
अर्थः- इंद्र, चंद्र, काशकृत्स्न, आपिशली, शाकटायन, पाणिनि, अमर और जैनेंद्र यह आठही वैयाकरण प्राचीन है.
उक्त प्राचीनाचार्य शाकटायनका नाम ऋग्वेद और शुक्ल यजुर्वेद की प्रतिशाखा और यस्कराकी निरुक्तिमें भी आता है, इत्यादि लिखना प्रो० आपटेका है. विस्तारपूर्वक देखना होवे तो उक्त व्याकरणमें देख लेवें.
यह जैनधर्म कि जिसकी प्राचीनता महान विद्वानोंने पुरा खोज करनेके बाद कबूल किई है, उसका रहस्य क्या है ? जैनी ईश्वरको कर्त्ता नही मानते हैं, जिस बात का खुलासा इस पुस्तक में आवेगा. यह जैनधर्म कितना बडा दिलवाला है कि केवल एक धर्म, एक जाती, एक प्रजा गिनता है. देशाटन के लिये कितनी छूट ! जैनी अनादि सदामुक्त जगत्का कर्त्ता हर्त्ता ऐसा एक ईश्वर नहीं मानते हैं. परंतु प्रजासत्ताक राज्य ( समान कार्य करनेवाले एक सारखे हकके भागी ) के माफिक, तीर्थंकर जिनको जैनी ईश्वर मानते हैं, वे मनुष्य थे. आत्माको पिछानके उनोंने कर्मका त्याग किया. राग द्वेषरूप grint क्षमारूप शस्त्र से पराजय किया. केवलज्ञान पाकर सिद्धगतिको प्राप्त भये. ईसी रस्ते जानेका मार्ग उन्होंने दूसरोंको दिखाया. और ऐसा मार्ग दिखाया कि दूसरोंको
Sáktayana is mentioned as one of the eight principal Grammarians in the well-known Sloka found in the Kavikalpadruma of Bopadeva and elsewhere. These eight Grammarians thus named are:
Indra, Chandra, Kasakrtsana, Apisáli, Sáktayana, Panini, Amara, and Jainendra. The Sloka runs as follows:-- इन्द्रश्चद्रकाशकृत्स्नापिशली शकटायनः । पाणिन्यगर जैनेंद्रा जयंत्यष्टादिशाब्दिकाः ॥
Sáktayana mentions in his Sutras only Indra, pp. 11, 14 and 34, 92, Siddhanandin, pp. 47, 15 and 87, 34, and Aryavajra pp. 10, 11 and 12, 13 as previous Grammarians.
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A striking feature of the Sábdanusasana is that it does not treat of the Svarvaidika while Panini pays particular attention to it. Vedic words, however, are otherwise much noticed by Sáktayana, and in this respect his work is not deficient to Panini.
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The omission of the Svarvaidika accounts perhaps for the neglect Sáktayana has suffered at the hands of the Brahmans, while it explains the favour with which he is regarded by the Jainas. If Saktayana was Jaina this omission must be regarded as intentional. &c. &c. &c. &c. &c. &c.
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