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सरल रस्ता मिल सके. यदि दूसरें भी ईसी तरह वनें तो तीर्थकर होना शक्य है. गत, वर्तमान और अनागत चोवीसीके सब तीर्थकर चरित्र नीति और गुणमें श्रेष्ठ हैं. उन गुणोंके प्रकाश करनेवाले सूत्रोंको देखनसें कोई विरुद्ध बात पाई नहीं जाती है. चक्रवर्तीकी याचना करनेसें वो दूसरेको समान नहीं कर सकता है; श्रीजिनदेवकी भक्ति वो जिनराजही कर देती है.
जैन धर्मका रहस्य यह है कि सब जिवोंका रक्षण करना (दया पालनी). सबको समान समजना, भ्रातृभाव रखना, विद्याशाला, औषधालय, पशुशाला स्थापना, साथ मिलकर भक्ति करना, पापका पश्चात्ताप करना, पापकर्मसे छुटनेको धर्मका ज्ञान संपादन करना, पाप नहीं करनेको दृढ निश्चय करना, किसीसे राग द्वेष नहीं करना, अगर भूलसें वा प्रमादके वशसें होगया होवे तो मनमें पश्चात्ताप करकेक्षमाका चाहना, सद्धर्मको फैलाना,प्रवृत्तिमार्गको त्यागके निवृत्तिमार्ग लेना, आत्मज्ञान प्राप्त करना, पापरहित उद्यममें प्रवर्त्तना, मन, वचन, काया, (कर्म ) में पवित्र होना, सत्य बोलना, ब्रह्मचर्य पालना, क्रोध, मान, माया, लोभ, आदिका त्याग करना, संयम, मनोनिग्रह और तप करना. धर्ममार्गको पुष्टी देनेवाले येह तमाम कार्य है. इनको साध्य करनेको और आत्माके कल्याण करनेको निर्लोभी, निर्विकारी, शांत, दांत, संयमी विद्वान सद्गुरुके सदुपदेशकी अतीव आवश्यकता है.
जैनलोक दयाको मुख्यताकरके मानते हैं. उसका सबब यह है कि “ दया" का अर्थ अंतरंग वृत्तिसें दूसरोंके हितके विषे द्रवित होना. “दया" शब्दके वाच्यार्थका अंगिकार आर्यप्रजाके सब दर्शनानुयायिको मान्य है. “दया" शब्दका लक्ष्यार्थ समजनेका दावा सब करते हैं, परंतु दयाका श्रेष्टोत्तम लक्ष्य तो जिस दर्शनशास्त्रमें सर्व आत्माको समान गिनकर स्थावर और जंगम जिवात्माओंका अनेकानेक भेद सूक्ष्मोत्तम प्रकारसें वर्णन किया हो, उस दर्शनके शिवाय कुशाग्रबुद्धिद्वारा अवलोकन करनेवाले को भी प्रायः नजर आता नही है.
_ नैयायिको अपनी शास्त्रीय परिभाषामें दयाका पालना सप्रेम स्वीकारता है. परंतु कौनसें कौनसे द्रव्य सचित्त है, किस प्रकारके वर्त्तनसे उनको संक्लिष्टता होगी, ऐसे भेदांतरसह भिन्न भिन्न प्रकारका विवेचन नैयायिक दर्शनमें दृष्टिगोचर होता नहीं है तो उस दर्शनके संप्रदायिको तो कहांसे समज शके ? सांख्यदर्शनवत्ता सूक्ष्म पर्यालोचनापूर्वक दयाका रहस्य दिखा सकते हैं, ऐसा कहना उनके शास्त्रशैलिके अनुभव करते हुए, निष्पक्षपाति शास्त्राभ्यासिको मान्य नहि है. पूर्वमीमांसको यज्ञादिक कर्मोंकरके पंचेंद्रियतिर्यक प्राणिका भोग देके धर्म मानते हैं और दयाकी अभिरुचिवाले अपनेको बताते हैं. मीमांसको दया शब्दका पारमार्थिक रहस्य समजते नहि है, इतना नहि परंतु दया शब्द शुकवत् वाणी मात्र कह जानते हैं. वेदान्तवेत्ताओ पृथ्वी, अप, तेज, वायु, वनस्पति ये सबमें चेतनसत्ता स्विकारके इन २ तत्वोंके जीवात्मा सुषुप्ति अवस्थावाले हैं, ऐसा समजके उनके प्राण, व्यतिपात करते हुए, पापोद्भव मान्य करतें नहिं है. याहुदी, जरतोस्ती, महम्मदीय प्रजा स्थावर जंगमात्मक सब द्रव्योंमें ईश्वरी सत्ता स्विकारके, जंगम जीवोंमें आत्मतत्त्व शास्त्रशैलिसें मान्य रखकर दयाशब्दकी प्रियता बताते हैं, तो भी भक्ष्याभक्ष्यका लक्ष रखते नहिं हैं. क्रिश्चियन धर्मवेत्ताओ मनुण्यके शिवाय अन्य प्राणाओंमें आत्माका अस्तित्व स्विकारते नहिं है. अन्य
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