SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीयस्तम्भः । ९१ जगत्वासी मनुष्यांको मिथ्यात्व अंधकार संसारकी वृद्धि के हेतुभूत मामें प्रवत्तन कराया है, तिनोंकेतांइ हम नमस्कार करते हैं. ये तुरंगश्रृंग समान पदार्थ यह है. एकही ब्रह्म है, अन्य कुछभी नही है, 9. पूर्वोक्त ब्रह्म तीन भाग सदाही निर्मल है और एक चौथा भाग मायावान् है, २. ब्रह्म सर्वव्यापक है, ३. सक्रिय है, ४. कूटस्थ नित्य है, ५. अचल है, ६. जगत् की उत्पत्ति करता है, ७. जगत्का प्रलय करता है, ८. ऊर्णनाभकीतरे सर्व जगत्का उपादान कारण है, ९. सदा निर्लेप सदा मुक्त है, १०. यह जगत् भ्रममात्र है, ११• इत्यादि तो वेद और वेदांत मतवालोंने तुरंग श्रृंग समान वस्तुयोंका कथन करा है. और सांख्य मतवालोंने एक पुरुष चैतन्य है, नित्य है, सर्वव्यापक है, एक प्रकृति जडरूप नित्य है, तिस प्रकृतिसें बुद्धि उत्पन्न होती है, बुद्धिसें अहंकार, अहंकारसें षोडशकागण, पांच ज्ञानेंद्रिय, (पांच कर्मेंद्रिय, इग्यारमा मन, और पांच तन्मात्र, एवं षोडश) पांच तन्मात्रसें पाँच भूत एवं सर्व, २५ प्रकृति जडकर्त्ता है, और पुरुष तिसका फल भोक्ता है, पुरुष निगुण है, अकर्त्ता है, अक्रिय है, परंतु भोक्ता है, इत्यादि सर्व कथन तुंरंगशृंगकीतरें असद्रूप करा है. नैयायिक वैशेषिक यह दोनों ईश्वरको सृष्टिका कर्त्ता मानते हैं, ईश्वर नित्य बुद्धिवाला है, सर्वव्यापक और नित्य है, ईश्वरही सर्व जीवोंका फलप्रदाता है, आत्मा अनंत है परंतु सर्वही आत्मा सर्वव्यापक है, मोक्षावस्था में ज्ञानके साथ समवायसंबंधके तूटनेसें आत्मा चैतन्य नही रहता है, और तिसकों स्वपरका भान नही होता है, इत्यादि सर्व कथन तुरंगशृंग उपपादनवत् है. पूर्व मीमांसावाले कहते हैं कि ईश्वर सर्वज्ञ नही है, मोक्ष नही है, वेद अपौरुषेय और नित्य है, वेदका कोई कर्त्ता नही है, इत्यादि सर्व कथन तुरंगशृंग उपपादनवत् असत् है. बौद्ध मतके मूल चार संप्रदाय है, - योगाचार ( १ ), माध्यमिक ( २ ), वैभाषिक ( ३ ), सौतांत्रिक ( ४ ); इनमें योगाचार मतवाले विज्ञानाद्वैतवादी हैं, आत्माको नहीं मानते हैं, एक विज्ञान क्षणकोही सर्व कुछ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy