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________________ ९२ तत्व निर्णयप्रासाद मानते हैं; कितनेक विज्ञान क्षणोके संतान के नाशकोही निर्वाण मानते हैं; कितनेक शून्यवादी सर्व शून्यही सिद्ध करते हैं, इत्यादि सर्व कथन तुरंगशृंग उपपादनवत् है. इन पूर्वोक्त, सर्वदादियोंका कथन जिस रीतिसें तुरंगशृंग उपपादनवत् असत् है, सो कथन अन्य योग्य व्यवच्छेदक द्वात्रिंशिकावृत्ति, ( स्याद्वाद मंजरी ) षट्दर्शनसमुच्चय बृहद्वृत्ति, प्रमाणनयतत्वालोकालंकार सूत्रकी लघु वृत्ति ( रत्नाकरावतारिका ) बृहद्वत्ति ( स्याद्वाद रत्नाकर,) धर्म संग्रहणी, अनेकांत जयपताका, शब्दांभोनिधि, गंधहस्तिमहाभाष्य, (विशेषावश्यक ) वाद महार्णव, ( सम्मतितर्क, ) इत्यादि शास्त्रोंसें जानना • इन पूर्वोक्त वादियोंने असत् वस्तुकों सत् करके कथन करनेमें जैसी कुशलता प्राप्त करी है, तैसी, हे जिनाधीश ! तैंने नही पाई है इस नास्ते, तिन परपंडितोंकेतांइ हमारा नमस्कार होवे. इहां जो नमस्कार करा है, सो उपहास्य गर्भित है, नतु तत्व || ५ || अथ स्तुतिकार भगवंतमें व्यर्थ दयालुपणेका व्यवच्छेद करते हैं. जगत्यनुध्यानबलेन शश्वत् कृतार्थयत्सु प्रसभं भवत्सु ॥ किमाश्रितोन्यैः शरणं त्वदन्यः स्वमांसदानेन वृथा कपालुः ॥६॥ व्याख्या - हे भगवंतः ! (जगति) जगत् में ( शश्वत् ) निरंतर (प्रसभं ) यथास्यात् तैसें हठसें (भवस्तु) तुमारेकों (कृतार्थयत्सु) जगत्वासी जीवांकों कृतार्थ करते हुआं, किस करके (अनुध्यान बलेन) अनुध्यान शब्द अनुग्रहका वाचक है, अनुग्रहके बल करके, अथात् सद्धर्मदेशनाके बल करके भव्य जीवोंके तारने वास्ते निरंतर जगत् में प्रसभसें - हठसें देशनाके बलसें जनोंकों कृतार्थ करते हुए, क्योंकि परोपकार निरपेक्ष अर्थात् बदलेके उपकारकी अपेक्षा रहित जो अनुग्रहके बलसें भव्य जनोंकों मोक्षमार्गमें प्रवर्त्त करना है, इसके उपरांत अन्य कोइ भी ईश्वरकी दयालुता नही है, जे कर विनाही उपदेशके दयालु ईश्वर तारने समर्थ है, तो फेर द्वादशांग, चार वेद, स्मृति, पुराण, बैबल, कुरानादि पुस्तकों द्वारा उपदेश प्रगट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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