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(२) पूर्वी ५०० से १००० वर्षतकका पुराना है. बाद जैन धर्मकी उत्पत्ति इ. स. पूर्वी २०० सें ४०० वर्षकी मानते हैं. अभी प्रायः धर्मशिक्षणके अभावसे झट एसा मान देते हैं कि किसी यूरोपियनने लिखा मानु परमेश्वरने कहा।
जैनधर्मके प्राचीनपणेके असंख्य पुरावे पुस्तकोंद्वारा मिल सकते हैं. इतनाही नहीं परंतु इस धर्मके अर्वाचीनपणेके विरुद्धमें बहुत बातें प्रसिद्धीमें आने लगी है. इस ग्रंथके स्तंभ ३२ में ग्रंथकर्त्ताने बहुतसी सबूतें जैनधर्म प्राचीन होनेकी दि है. इ० स० १८९३ में मद्रास प्रेसिडेन्सी कालेजके संस्कृत और कंपेरेटीव फाईलोलोजी (भाषाशास्त्र) के प्रोफेसर मि० गुस्ताव ओपर्ट पी. एच. डी. ने शाकटायन व्याकरण प्रसिद्ध किया है. जिसपरसें जैनधर्मकी प्राचीनताकी सिद्धिमें बहुतसी ऐसी बातें जाहिरमें आई हैं कि, जैनधर्मको अर्वाचीन बतानेवाले बहुतसें पंडित चकित हो गये हैं. क्योंकि यह शाकटायन व्याकरणके कती जैनधर्मानुयायी भये हैं. और उसका अनिवार्य कारण प्रो० मि० ओपर्टकी नीचे लिखी मीफेप्त * (उपोद्घात ) देखनेसे मालुम पडेगा. १. शाकटायन व्याकरणका प्रथम मंगलाचरण यह है.
नमः श्रीवर्धमानाय प्रबुद्धाशेषवस्तवे ॥
येन शब्दार्थसंबंधास्सार्वेण सुनिरूपिताः ॥ १ ॥ अर्थ:-जिस सर्वज्ञ प्रभुने शब्द और अर्थका संबंध निरुपण किया है, जो सब वस्तुके स्वरूपके जानकार है, ऐसे श्री वर्धमान प्रभु (जैनोंके चोवीसमे तीर्थकर श्री महावीरस्वामि ) को नमस्कार हो.
२. शाकटायनाचार्य अपने व्याकरणके प्रत्येक पदांतमें, “॥ महाश्रमणसंघाधिपतेः श्रुतकेवलिदेशीयाचार्यस्य शाकटायनस्य ॥”
ऐसा लिखते हैं. उसमें श्रमणसंघाधिपति और श्रुतकेवली शब्द ऐसे हैं, जो केवल जैनधर्मके सांकेतिक शब्द है; यह शब्द दूसरे धर्मपुस्तकमें नहीं मिलते हैं.
* PROFESSOR GUSTAV OPPERT, PH. D., WRITES :
Panini refers to Sákatayana as a previous Grammarian and this supplies a reason why the latter makes no mention of the former. Sákata yana's name occurs also in the Pratisákhyas of the Rigveda and Sukla-Yajurveda, and in Yaska's Nirukta.
The Colophon at the end of each Pada of the Sábdanusasana names this Grammar as the work of Saktayana Srutakevalidesiyacharya, the president of the great Jain assembly. महाश्रमणसंघाधिपतेः श्रुतकेवलिदेशीयाचार्यस्य शाकटायनस्य.
Panini repeatedly mentions Sáktayana and the places thus alluded to, are also found in the Sabdanusasana. Panini III. 4, 111; VIII. 3,18; and VIII. 450, correspond respectively to Sakatayana's आद द्विषो झर्जुस्वा (pp. 35,9& 220, 290.) वानुयात् (pp. 8.12 and 14, 65), and न संयोगे ( pp. 6, 18 and 9,31).
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