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________________ द्वितीयस्तम्भः । ७९ नगरी में पहुंचानेको सार्थवाहतुल्य है, " ऐसी दुंदुभि अर्थात् आकाश में दिव्यानुभावकरके क्रोडोंही देववाजित्र बजते हैं. ॥ ७ ॥ छत्तं - तीन भवन में परमेश्वरत्वके ज्ञापक, शरत्कालके चंद्रमा और मुचकुंदके समान उज्वल मुक्ताफलकी मालाकरके विराजमान, ऐसें तीन छत्र भगवान्के मस्तकोपरि छत्रातिछत्रप्रत्यें धारण करते हैं. यह आठ प्रातिहार्य श्री जिनेश्वर भगवत्संबंधि जयवंते वर्त्तो ! इन पूर्वोक्त अष्ट प्रातिहार्यकरके संपूर्ण है, और पुण्य पाप उपलक्षसें नव तत्व जाणता है तिस हेतुसे नकार अंत्याक्षर कहते हैं. यह अर्हन् शब्दके अक्षरोंका अर्थ है. ॥ ४३ ॥ अब स्तवन कर्त्ता पक्षपातसें रहित होके अंतका आर्यावृत्त कहते हैं. भवबीजाङ्कुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य ॥ ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥ ४४ ॥ इति श्रीमद्धेमचंद्रसूरिविरचितं श्रीमहादेवस्तोत्रम् || 0 व्या० - संसाररूप बीजके चार गतिरूप अंकुर के उत्पन्न करनेवाले राग, द्वेष, अज्ञानादि अठारह दूषण जिसके क्षयभावको प्राप्त हुए हैं, तिप्तका नाम ब्रह्मा हो, वा विष्णु हो, वा हर, (महादेव) हो, वा जिन हो, तिसकेतां नमस्कार हो ॥ ४४ ॥ इति श्रीम० श्रीमहादेव स्तोत्रम् || इन पूर्वोक्त विशेषणोंवाले ब्रह्मा, विष्णु, महादेवकोही जैनमतवाले अर्हन्, अरिहंत, अरुहंत, अरह, जिन, तिर्थंकर, इत्यादि नामोसें मानते हैं. क्योंकि, जैनमतमें अरिहंत है, सोही ब्रह्मा, विष्णु, महादेव है. "यदुक्तं श्रीमन्मान तुङ्ग सूरिप्रवरैः--' , बुद्धस्त्वमेव विबुधाचिंतबुद्धिबोधात्वं शंकरोऽसि भुवनत्रयशंकरत्वात् ॥ धातासि धीरशिवमार्गविधेर्विधाना वक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि ॥ २५ ॥ 1 टीका ॥ अर्थान्तरकरणेनान्यदेवनाम्ना जिनं स्तुवन्नाह | बुद्धस्त्वमिति || हे नाथ! त्वमेव बुद्धः असि वर्त्तसे । असीति क्रियापदं । कः कर्त्ता । त्वं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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