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________________ द्वितीयस्तम्भः। सप्राप्ता कृतकृत्यत्वमेकानंशा पुरा ह्यसि ।। य एष सिंहः प्रोद्भूतो देव्याः क्रोधाद्वरानने! ॥ १६ ॥ स तेऽस्तु वाहनं देवि ! केतौ चास्तु महाबलः॥ गच्छ विन्ध्याचलं तत्र सुरकार्य करिष्यसि ॥ १७॥ पञ्चालो नाम यक्षोऽयं यक्षलक्षपदानुगः ॥ दत्तस्ते किंकरो देवि! मया मायाशतैर्युतः ॥१८॥ इत्युक्ता कौशिकी देवी विन्ध्यशैलं जगाम ह ॥ उमापि प्राप्तसंकल्पा जगाम गिरिशान्तिकम् ॥ १९॥ प्रविशन्तीति तां द्वारि ह्यपकृष्य समाहितः । रुरोध वीरको देवी हेमवेत्रलताधरः ॥२०॥ तामुवाच च कोपेन रूपातु व्यभिचारिणीम् ॥ प्रयोजनं न तेऽस्तीह गच्छ यावन्न भेत्स्यसि ॥ २१ ॥ देव्या रूपधरो दैत्यो देवं वञ्चयितुं त्विह॥ प्रविष्टो न च दृष्टोऽसौ स वै देवेन घातितः ।। २२॥ घातिते चाहमाज्ञप्तो नीलकंठेन कोपिना ॥ द्वारेषु नावधानं ते यस्मात्पश्यामि वै ततः ॥ २३ ॥ भविष्यसि न मद्वाःस्थो वर्षपूगान्यनेकशः ॥ अतस्तेऽत्र न दास्यामि प्रवेशं गम्यतां द्रुतम् ॥ २४॥ इतिश्रीमत्स्यपुराणे षट्पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५६॥ भाषा-पार्वती कहती है हे वीरभद्र ! तू स्नेहरहित हो मुझ माताको त्याग कर शिवजीके ओर अन्य स्त्रियोंके एकांत समयमें सावधान नहीं रहा, इस हेतुसे तेरी माता रूखी जडहृदयसे वर्जित काली शिलाके समान हो जायगी इस प्रकारसे यह वीरभद्रके शिलामेंसे उदय होनेका निमित्त होता भया; तब वह वीरभद्र विचित्र २ कथाओंको सुन रहा था और पार्वतीने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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