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________________ द्वितीयस्तम्भः। आपकेभी दुष्टोंके संपर्कसे सब दोष है, तुम सर्पसे भी कठिन हो, भस्मके समान स्नेह नही करते, चंद्रमाके कलंकसे भी बुरा तुम्हारा हृदय है, इस वृषभसे भी कम निर्बुद्धि हो, इससे अधिक बकझक करनेसे क्या प्रयोजन है ? श्मशानमें वास करनेसे तुम भय नहीं करते, नंगे रहनेसे तुमको लज्जा नहीं है, कपाल धारण करनेसे तुम्हारी दया चली गई है, ऐसा कहकर पार्वती उस स्थानसे चलती भई. तब चलनेके समय शिवके गणोंका किलकिल शब्द हुआ. वीरभद्र रोकर उसदेवीके संग भाग २ कर यह कहने लगा कि, हे माता! तू मुझको छोडकर कहां जाती है, ऐसे कहकर पैरोंमें लौट गया, और कहने लगा कि, मैं स्नेहको त्यागकर तुझजानेवालीके संग चलूंगा, और जिस पर्वतमें तू तप करेगी वहांसे तुझसे त्यागा हुआ मैं पर्वतके शिखरपर चढकर गिरूंगा. जब उसने ऐसी बातें कही तब पार्वती दक्षिण हाथसे उसके मुखको प्यार करके बोली हे पुत्र ! तू शोच मत कर, पर्वतसे नहीं गिरना चाहिये, और मेरेसाथ भी तुझको नही चलना चाहिये. हे पुत्र ! तेरे करनेके योग्य कामको मैं बताती हूं, सो तू सुन. शिवजीने मुझको कृष्णा बताकर मेरी बड़ी निंदा करी है, सो मैं ऐसा तप करूंगी जिस्से कि गौरवर्ण हो जाऊं. यह शिवजी स्त्रीके लालची हैं. जब मैं चली जाऊं उस समय तू इस स्थानके द्वारपर रक्षा करियो कि, कोई अन्य स्त्री इनकेपास न आने पावे. हे पुत्र! जो अन्यकोई स्त्री इनके समीप आती हुई देखे तो, अवश्य मुझसे कह दीजो, मैं शीघही उसका प्रबंध करदूंगी. यह बात सुनकर वीरभद्र बोला कि, ऐसाही करूंगा. यह कहकर माताकी आज्ञा रूप अमृत ह्रदमें स्नान करनेसे आनंदयुक्त होता भया. और अपनी माताको प्रणाम करके पर्वतकी कक्षामें चला जाता भया. इति श्रीमत्स्यपुराणे भाषाटीकायां चतुःपंचाशदधिकशततमोऽध्यायः १५४ ॥ सूत उवाच ॥ देवीं सापश्यदायान्ती सती मातुर्विभूषिताम् ॥ कुसुमामोदिनी नाम तस्य शैलस्य देवताम् ॥ १॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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