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तत्वानर्णयप्रासादयह फल प्राप्त हुआ कि, पद २ में मेरा तिरस्कार होता है. हे शिवजी! मैं, विषम और कुटिल नही हूं. हे धूर्जटे! दोषोंके सेवन करनेवालेके, आश्रय होकर मुझमें विष उत्पन्न हो गया है. हे शिव! मैं पूषाके दांत नही हूं. इंद्र नहीं हूं. मुझको सूर्य भगवान् देखता है. मेरा तिरस्कार करनेवाला पुरुष अपने दोषोंकरके अपनेही मस्तकमें शूल चुभोता है. जो तुम मुझको कृष्णा और महाकाली यह जो कहते हो, इसलिये मैं अपने आत्माको त्यागकर पर्वतमें तप करने जाती हूं. धूर्त्तके साथ लगकर मुझ जीवती हुईका क्या प्रयोजन है ?
पार्वतीके ऐसे वचनोंको सुनकर शिवजी संभ्रमको प्राप्त होकर बडी विनयसे यह वचन बोले. हे पार्वती! तूं मेरी प्यारी है, मैंने तेरी निंदा नही करी है, मैंने तो तेरी बुद्धि जानकर कृष्णा, कालिका यह तेरे नाम निकाले हैं. हे गिरिजे! स्वस्थचित्तवालोंके विकल्प नहीं होता है, हे भीरु ! जो तू ऐसी कुपित होती है तो, तेरा हास्य मैं फिर अब कभी न करूंगा. अब तो कोपको दूर कर. हे सुंदरहास्यवाली! मैं तुजको शिरसे प्रणाम करता हूं, और मूर्यकी ओर हाथ जोडता हूं. स्नेहसे, अपमानसे, अथवा निंदा करनेसे जो रूस जाता है उसके साथ हास्य कभी न करना चाहिये. इस प्रकारके अनेक विनयके वचनोंसे शिवजीने पार्वतीको समझाया, परंतु मर्ममें भिंदी हुई पार्वती अपने महाक्रोधको नही त्यागती भई. शिवजीके हाथसे अपने वस्त्रको छुटाकर शीघ्रही गमन करनेकी तैयारी करती भई. तब उसके गमनहीके विचारको देखकर शिवजी क्रोधपूर्वक फिर बोले कि, सत्य है ! तू सबप्रकारसे अपने पिताकेही समान है.
हिमाचलके शिखरोंपर जैसे मेघोंसे व्याकुल हुआ आकाश दुर्लभ हो जाता है, इसीप्रकार तेरा भी हृदय कठिन है. तू ऐसी कठिण है तभी तो हमको छोडकर वनोंमें जाती है. पर्वतमें जैसे कि भयंकर मार्ग रहते हैं उनसे भी तू कुटिल है. और तेरा सेवन करना हिमाचलसे भी कठिन है, ऐसे कही हुई पार्वती क्रोधकरके मस्तकको कंपाकर और दांतोंको चबाकर फिर बोली कि, आप अन्य गुणी लोगोंको दोष लगाकर उनकी निंदा मत करो.
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