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________________ द्वितीयस्तम्भः। सोहं पतिष्ये शिखरात्तपोनिष्ठे त्वयोज्झितः॥ उन्नाम्य वदनं देवी दक्षिणेन तु पाणिना ॥२८॥ उवाच वीरकं माता मा शोकं पुत्र! भावय ॥ शैलाग्रात्पतितुं नैव न चागन्तुं मया सह ॥२९॥ युक्तं ते पुत्र वक्ष्यामि येन कार्येण तच्छणु ॥ कृष्णेत्युक्ता हरेणाहं निन्दिता चाप्यनिन्दिता ॥३०॥ साहं तपः करिष्यामि येन गौरीत्वमाप्नुयाम् ॥ एष स्त्रीलम्पटो देवो यातायां मय्यनन्तरम् ॥३१॥ द्वाररक्षा त्वया कार्या नित्यं रन्ध्रान्ववेक्षिणा ॥ यथा न काचित् प्रविशेद्योषिदत्र हरान्तिकम् ॥३२॥ दृष्ट्वा परस्त्रियश्चात्र वदेथा मम पुत्रक!॥ शीघ्रमेव करिष्यामि यथायुक्तमनन्तरम् ॥३३॥ एवमस्त्विति देवीं स वीरकः प्राह सांप्रतम् ॥ मातुराज्ञामृतहदे प्लाविताको गतज्वरः॥ ३४॥ जगाम कक्ष्यां संद्रष्टुं प्रणिपत्य च मातरम् ॥ ३५॥ इतिश्रीमत्स्यपुराणे चतुःपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः॥१५४॥ भाषा-शिवजी कहते हैं कि, हे तन्वंगि ! मेरे शरीरमें श्वेत कांति झलक रही है, और तू ऐसे मुझसे लिपट रही है जैसे कि चंदनके वृक्षमें सर्पिणी लिपट रही हो, चंद्रमाकी किरणोंके समान सुंदर वस्त्रोंसे युक्त हुई ऐसी विदित होती हुई जैसे कि कृष्ण पक्षमें रात्रि दिखाई देती है, ऐसे कही हुई पार्वती शिवजीके कंठको छोडकर क्रोधसे लाल नेत्र कर भृकुटी चढाकर बोली कि, अपने ही अवगुणोंसे सब लोगोंका तिरस्कार होता है, प्रयोजन होनेसे चंद्रमाका मंडल भी ग्रहणके समयमें अवश्य खंडित हो जाता है. बहुतसी तपस्याओंसे जो मैंने तुह्मारी प्रार्थना करी तो, उसका मुझको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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