SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ૨૮ तस्वनिर्णयप्रासादकहते हैं. “त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रयशंकरत्वात्" इतिवचनात् । भगवंतके दोही आसन हैं, कायोत्सर्गासन वा पर्यकासन. पुनः भगवंतकी मुद्रा, स्त्री और चक्र त्रिशूलादि, आदिशब्दसें जपमाला, यज्ञोपवीत, कमंडलु इत्यादिसें रहित होतीहै. क्योंकि, इनके रखनेसें भगवान् कामी, क्रोधी, अज्ञानी, अशुची इत्यादि दूषणोंवाला सिद्ध होता है. यदुक्तं “ स्त्रीसंगः काममाचष्टे द्वेषं चायुधसंग्रहः॥व्यामोहं चाक्षसूत्रादिरशौचं चकमण्डलुः" इति ॥१८॥ साकारोऽपि शनाकारो मूर्तामूर्तस्तथैव च ॥ परमात्मा च बाह्यात्मा अन्तरात्मा तथैव च ॥१६॥ भाषा-देहसंयुक्त तेरमे चौदमे गुणस्थानमें जबताइ औदारिक, तैजस, कार्मण शरीरोंकेसाथ संबंधवाला है, तबताइ ईश्वर साकारस्वरूपवाला है, और जब सिद्धपदकों प्राप्त होताहै, तब निराकारस्वरूप कहा जाता है. ईश्वर साकारावस्थामें मूर्तिमान् है, और सिद्धपदकी अपेक्षा अमूर्तस्वरूप है, परमात्मा है, बाह्यात्मस्वरूपवाला है, और अंतरात्मास्वरूपवाला भी है. कथंचित् भगवंतमें पूर्वोक्त सर्वस्वरूप घटे हैं, सोही स्याद्वाद शैलीकरके दिखाते हैं ॥ १६ ॥ दर्शनज्ञानयोगेन परमात्मायमव्ययः॥ परा क्षान्तिरहिंसा च परमात्मा स उच्यते ॥ १७॥ भाषा-दर्शनज्ञानके योगकरके अर्थात् ज्ञानदर्शनस्वरूपकरके जो परमात्मास्वरूपकों प्राप्त हुआ है. । 'नाणदंसणलक्खणं' इतिवचनात् । और जो अव्ययरूपवाला है. “तभावाव्ययं नित्यम्" इतिवचनात् । और उत्कृष्ट क्षमा और अहिंसा इनकरके जो संयुक्त है, सो परमात्मा कहा जाताहै ॥ १७॥ परमात्मासिद्धिसंप्राप्तौ बाह्यात्मा तु भवान्तरे ॥ अन्तरात्मा भवेद्देह इत्येषस्त्रिविधः शिवः ॥ १८॥ भाषा-जब सिद्धिमुक्तिकों प्राप्त होवे तब परमात्मा जानना, अर्थात् तेरमें चौदमें गुणस्थानसें सिद्धिपदप्राप्तितक परमात्मा कहा जाताहै. और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy