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द्वितीयस्तम्भः ।
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महाज्ञानी, महातपःस्वरूप, महायोगी सर्व योगोंका जाननहार, और धारनहार है, और जो महामौनी, सावद्य वचनसें रहित है, सो महादेव कहा जाता है ॥ १२॥
महावीर्यं महाधैर्यं महाशीलं महागुणः ॥
महामञ्जुक्षमा यस्य महादेवः स उच्यते ॥ १३ ॥
भाषा - महावीर्य, वीर्यांतरायकर्मके क्षय होनेसें अनंतवीर्य, महाधैर्य, छद्मस्थावस्था में परीसह उपसर्गोंसें कदापि ध्यानसें चलायमान नहीं होनेसें, महाशील, अष्टादश सहस्र १८००० शीलांगवाले होनेसें, केवलज्ञानदर्श नादि अनंत महागुण, और महाकोमल मनोहर क्षमा है जिसके, सो महादेव कहा जाता है ॥ १३ ॥
स्वयंभूतं यतोज्ञानं लोकालोकप्रकाशकम् ॥ अनन्तवीर्यचारित्रं स्वयंभः सोभिधीयते ॥ १४ ॥
भाषा - स्वयमेवही आत्मस्वरूपसेंही ज्ञानावरणीयादि कर्मोंके क्षय होसें आविर्भूत हुआ है ज्ञानकेवलरूप लोकालोकका प्रकाशक जिसके, वीर्यांतराय कर्मके क्षय होनेसें आविर्भूत हुआ है अनंतवीर्य जिसके, और चारित्रमोहके क्षय होनेसें अनंतक्षायक चारित्र प्रगट हुआ है जिसके, तिस भगवान्को स्वयंभू कहियेहैं. “शंभुः स्वयंभूर्भगवान्” इतिवचनात् ||१४|| शिवो यस्माजिनः प्रोक्तः शंकरश्च प्रकीर्त्तितः ॥
कायोत्सर्गी च पर्यङ्की स्त्रीशस्त्रादिविवर्जितः ॥ १५ ॥ भाषा - शिव निरुपद्रव, अर्थात् जिसका स्वरूप निरुपद्रव है, और सर्व जगत् के निरुपद्रव होनेमें हेतु है; क्योंकि, जहां जहां भगवंत विचरते हैं, तहां तहां चारों तर्फ पच्चीस योजनतांइ दुष्ट व्यंतरकृत मरीज्वरादि नही होते हैं. और स्वचक्रपरचक्रका भय नही होता है. और अदृष्टि, अतिवृष्टि तथा मूषक टीड प्रमुख धान्यके उपद्रवकारी जीव नही होते हैं. और जीवोंकों शिव अर्थात् मुक्तिपथका उपदेश देनेसें जिन भगवान् तीर्थंकरकोंही शिव कहते हैं, चौतीस ३४ अतिशय संयुक्त होनेसें. पुनः तिसही भगवंतकों तीन भुवनके जीवोंकों उपदेशद्वारा शं (सुख) करनेसें शंकर
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