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________________ द्वितीयस्तम्भः । ३३ विनाशी है सो क्रमकरके अर्थक्रिया करनेको समर्थ नही है, देशकृत कालकृत क्रमकेही अभावसें. क्रम जो है सो पूर्वापर है, सो क्षणिकमें संभवे नही है. क्योंकि, अवस्थितकोंही नाना देशकालव्याप्ति है; और देशक्रम कालक्रम भी कहिये है. और एकांत विनाशी में सा है नही. ' यदाहुः ' , यो यत्रैव स तत्रैव यो यदैव तदैव सः ॥ न देश कालयोर्व्याप्तिर्भावानामिह दृश्यते ॥ १ ॥ भाषाः - जो जहां है सो तहांही है. जो जिस कालमें है सो तिसही कालमें है. भावोंकी यहां देशकालविषे व्याप्ति नही दीखती है. और संतानकी अपेक्षाकरके भी पूर्वोत्तर क्षणोंको क्रम संभव नही है, संतानको अवस्तु होनेसें. वस्तुके हुए भी जेकर तिसको क्षणिकत्व है, तब तो क्षणोंसें कुछ भी विशेष नही है. जेकर अक्षणिकत्व है, तब तो क्षणभंगवाद समाप्त हुआ. अक्रमकरके भी क्षणिकमें अर्थक्रियाका संभव नही है. सो क्षणिक एक बीजपूरादि रूपादिक्षण युगपत् अनेक रसादि क्षणोंको उत्पादन करता हुआ एक स्वभावकरके उत्पन्न करता है, वा नाना स्वभावोंकरके ? जेकर एककरके करता है, तब तो तिन रसादि क्षणोंका एकत्वपणा होवेगा; एक स्वभावसें जन्य होनेसें. अथ नाना स्वभावोंकरके उत्पन्न करता है, किंचित् रूपादि उपादानभावकरके, किंचित् रसादि सहकारिपणेकर के, तब तो वे स्वभाव तिसके आत्मभूत है वा अनात्मभूत है ? जेकर अनात्मभूत है, तब तो स्वभावत्वकी हानि है. जेकर आत्मभूत है तब तो तिसको अनेकत्वपणा है, अनेक स्वभावत्व होनेसें. अथवा अनेक स्वभावोंको एकत्वका प्रसंग है. तिससें तिनको अव्यतिरिक्त होनेसें और तिसको एक होनेसें. अथ जोहि एकत्र उपादानभाव है सोही अन्यत्र सहकारिभाव है; इस वास्ते स्वभावभेद नही मानते हैं, तब तो नित्य एक रूपको भी कम करके नाना कार्यकारिको स्वभावभेद और कार्यसांकर्य कैसे माना है क्षणिकवादियोंने ? अथ नित्य जो है. सो, एकरूपवाला होनेसें अक्रम है और अक्रमसें क्रमकरके होनेवाले नाना कार्योंकी कैसें For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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