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________________ तत्वनिर्णयप्रासादः उत्तरपक्षः-सहकारियोंने तिसकों किंचित् उपकार करीये है, वा नही? जेकर नही करीये है, तब तो सहकारीयोंकी संनिधानसे पहिलेकी तरें क्यों नही अर्थक्रियामें उदास रहता है ? जेकर उपकार करीये है, तब तो सो उपकार तिनोने भिन्न कयीये हैं वा अभिन्न ? जेकर अभिन्न करीये हैं तब तो तिसकोही करीये हैं ऐसे तो लाभ इच्छते हुए मूलहानिही आ गई. कृतक होनेसें, तिसको अनित्यताकी आपत्तिसें. जेकर भेद है, तो सो उपकार तिसको कैसे हुआ ? सह्य और विंध्याचलको क्यों न हुआ ? .. पूर्वपक्षः-तिसके साथ संबंध होनेसे तिसका यह उपकार है. ... उत्तरपक्षः-उपकार्य उपकारका क्या संबंध है ? संयोगसंबंध तो नही. क्योंकि, वो तो द्रव्योंकाही होता है. यहां तो उपकार्य द्रव्य है, और उपकार क्रिया है, इसवास्ते संयोगसंबंध तो नही है. और समवायसंबंध भी नहीं है. क्योंकि, तिसको एक होनेसें और व्यापक होनेसें, निकट दूरके अभावसे, सर्वत्र तुल्य होनेसें. नियतसंबंधियोंके साथ भी संबंधयुक्त नहीं है. क्योंकि, नियतसंबंधिसंबंधके अंगिकार करे हुए तिसका करा उपकार इस समवायका अंगिकार करना चाहिये. तैसें हुए उपकारको भेदाभेद कल्पना तैसेंही है. उपकारको समवायसें अभेद हुए समवायही करा सिद्ध हुआ. और भेद माने भी समवायको नियतसंबंधिसंबंधत्व नही है. तिस वास्ते एकांत नित्यभाव क्रमकरके अर्थक्रिया नही करता है. और युगपत भी अर्थक्रिया नहीं करता है. एक भाव सकल कालमें होनेवालीयां युगपत् सर्व क्रियाओंको करता है, ऐसी प्रतीति नही होती है. जेकर करे तो दूसरे समयमें क्या करेगा ? जेकर करेगा तो क्रमभावी पक्षके दूषण होवेंगे. जेकर न करेगा तो अर्थक्रियाकारित्वके अभावसे अवस्तुत्वका प्रसंग है. ऐसें एकांत नित्यसें क्रमाक्रमकेसाथ व्याप्त अर्थक्रिया व्यापकानुपलब्धिके बलसें व्यापक निवर्तन होनेसें निवर्तमान होती हुई स्वव्याप्य अर्थक्रियाकारित्वको निवर्तन करे हैं. और अर्थक्रियाकारित्व निवर्तमान होता हुआ स्वव्याप्यसत्वको निव. तन करता है. इस वास्ते, एकांत नित्य पक्ष भी युक्तिक्षम नही है. एकांत अनित्य पक्ष भी अंगीकार करने योग्य नहीं है. अनित्य जो है सो प्रतिक्षण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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