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द्वितीयस्तम्भः भाषार्थः-'आदीपं दीपकसें लेके 'आव्योम, व्योम मर्यादीकृत्य' आकाशपर्यंत, सर्व वस्तु पदार्थस्वरूप जो हैं, सो समस्वभाव हैं; तुल्यरूप हैं स्व. भावस्वरूप जिसका, सो समस्वभाव. क्योंकि, वस्तुका स्वरूप द्रव्यपर्यायात्मक है, ऐसा हम कहते हैं. तैसेंही वाचक मुख्य श्री उमास्वातिजी तत्वार्थसूत्र में कहते हैं. “ उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सदिति” जो उत्पादव्यय-ध्रौव्यकरके युक्त है सोइ सत् है. और जो सत् है सोई वस्तुका लक्षण है. समस्वभाव सर्व वस्तुयों किस हेतुसें ? ऐसें पृछकके पूछे थके विशेषणद्वारकरके हेतु कहते हैं. 'स्याद्वादमुद्रानतिभदि''स्यात् ' ऐसा अव्यय अनेकांतका द्योतक है. तब तो स्याद्वाद ( अनेकांतवाद ) नित्य-अनित्यादि अनेक धर्मोके शबल स्वभाववाला एक वस्तुका मानना, तिसकी मुद्रा ( मर्यादा ) तिसको जो उल्लंघन न करे (न तोडे ) सो स्याद्वादमुद्रानतिभेदि वस्तु है. जैसें न्याय एकनिष्ट न्यायतत्पर राजाके राज्यशासन चलाते हुए, सर्व तिसकी प्रजा तिसकी मुद्रा ( मर्यादा ) का अतिक्रम नहीं करती हैं. जेकर अतिक्रम करे तो तिसके सर्व अर्थकी हानि होवे है. ऐसेंही विजयवंत नि:कंटक स्याद्वाद महानरेंद्रके हुए, तिसकी स्याद्वादमुद्राका सर्वही पदार्थ अतिक्रम ( उल्लंघन ) नहीं कर सकते हैं. जेकर उल्लंघन करे तो तिनको स्वरूप व्यवस्थाकी हानिकी प्रसक्ति होनेसे अवस्तुपणेका प्रसंग होवेगा. और सर्व वस्तुयोंका जो समस्वभाव कथन करा है, सो परवादियोंको जो अभीष्ट मान्य है, एक व्योमादि वस्तु नित्यही है, अन्यत् प्रदीपादि अनित्यही है, ऐसे वादके प्रतिक्षेप खंडनका बीज है. सर्वही भाव पदार्थ द्रव्यार्थिक नयापेक्षासें नित्य है, और पर्यायार्थिक नयके मतसें अनित्य है. सहां एकांत अनित्यपणेवादीयोंने अंगीकार करे प्रदीपको प्रथम नित्यानित्यपणेके व्यवस्थापनविषे दिङ्मात्र (संक्षेपमात्र) कथन करते हैं. तथाहि प्रदीपपर्यायको प्राप्त हुए तैजस परमाणु जे हैं, वे स्वभावें चा तैलके क्षयसे वा पवनके अभिघातसें ज्योतिःपर्यायको त्यागके तमोरूप पर्यायांतरको प्राप्त होते हुए भी एकांत अनित्य नहीं हैं. क्योंकि, पुद्गल द्रव्यरूपकरके वे सदा अवस्थितही हैं. इतने मात्रसेंही अनित्यता नहीं
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