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________________ २६ तत्वनिर्णयप्रासादऔर तिनकी मूर्ति निरुपाधिक प्रशांतरूप होनेसें प्रशांत दर्शनवाली है. क्योंकि, जो त्रिभुवनमें प्रशांतरूप परिणामवाले परमाणु भगवान्के शरीरको लगे हैं, तैसें परमाणु तितनेही जगत्में हैं; इसवास्ते भगवान्के प्रशांतरूप समान अन्यरूप किसीका भी नहीं है. तथा तिनकी मूर्ति जैसी प्रशांताकारवाली है, तैसी जगत्में किसी भी देवकी नहीं है, इस वास्ते भगवानका प्रशांत दर्शन है. और सर्वभूत प्राणियोंको अभयदान देनेवाला है, " अभय दयाणं इति वचनात्" क्योंकि, विद्यमान भगवानके स्वरूप और तिनकी मूर्तिके स्वरूपमें कोईभी वस्तु भय देनेवाली नही है. जिसके हाथमें त्रिशूल, चक्र, परशु, तलवार आदि शस्त्र होवेंगे, वो देव अभय देनेवाला नही है, परंतु किसी वैरीके भयसें वा किसीके मारनेवास्ते शस्त्र धारण करे हैं. भगवान्में पूर्वोक्त दूषण नहीं हैं, इसवास्ते अभयदानका दाता है. और मांगल्यरूप है. “ अरिहंता मंगलं इति वचनात् ” और प्रशस्त भला है, प्रशस्त वस्तुरूप होनेसें. इस करके पूर्वोक्त विशेषणोंवाला होनेकरके शिव कहीये है. ॥१॥ महत्वादीश्वरत्वाच्च यो महेश्वरतां गतः ॥ रागद्वेषविनिर्मुक्तं वंदेऽहं तं महेश्वरम् ॥२॥ भाषार्थः-प्रथम श्लोकमें शिवका स्वरूप कथन करा, अथ महेश्वरका स्वरूप कहते हैं. बडा होनेसें और ईश्वर होनेसें जो महेश्वरताको प्राप्त हुआ है, तिहां महत् शब्दका अर्थ बड़ा है, शुद्ध खरूप शुद्ध ज्ञानादि गुणोंसें, बडा होनेसें और सर्व देवताओंका ठाकुर (पूज्य) अलंघनीय आज्ञावाला और सर्वका नायक, अग्रेश्वरी होनेसें ईश्वर. क्योंकि, जो चैतन्य जड पदार्थ जगत्में है, वे सर्व तिसकी स्याद्वाद मुद्रारूप आज्ञाका उल्लंघन नहीं कर सक्ते हैं. और जो उल्लंघन करता है, सो तीन कालमें भी वस्तुखरूपको प्राप्त नहीं होता है. उक्तं च श्रीमद्धेमचंद्रसूरिप्रवरैः ।। आदीपमाव्योम समस्वभावं स्याद्वादमद्रानतिभेदि वस्तु ॥ तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्यदिति त्वदाज्ञाद्विषतां प्रलापाः ॥१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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