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________________ २४ तत्वनिर्णयप्रासादवाक्यकों वेद मानते हैं; शेष ईश्वर, ईश्वरस्तुति, ईश्वरखरूप और वेदांत अद्वितीय ब्रह्मकी प्रतिपादक श्रुतियां, यह सर्व ऋषियोंने पीछे प्रक्षेप करी हैं, ऐसें मानते हैं. जैन मतका शास्त्रभी पूर्वोक्त मीमांसक मतकी गवाही देता है यदुक्तं षड्दर्शनसमुच्चये श्रीहरिभद्रसूरिपादैः ।। जैमिनीयाः पनः प्राहः, सर्वज्ञादिविशेषणः ॥ देवो न विद्यते कोपि, यस्य मानं वचो भवेत् ॥ १॥ तस्मादतींद्रियार्थानां, साक्षाद्रष्टुरभावतः ॥ नित्येभ्यो वेदवाक्येभ्यो, यथार्थत्वविनिर्णयः॥ २॥ अतएव पुरा कार्यों, वेदपाठः प्रयत्नतः ।। ततो धर्मस्य जिज्ञासा, कर्तव्या धर्मसाधनी ॥ ३ ॥ नोदनालक्षणो धर्मो, नोदना तु क्रियांप्रति ॥ प्रवर्तकं वचः प्राहः, स्वः कामोनिं यजेद्यथा ॥४॥ भाषार्थः-जैमनीय पुनः कहते हैं कि, सर्वज्ञादि विशेषणवाला ऐसा कोइ देव नहीं है कि, जिसका वचन प्रमाण होवे ॥१॥ तिस वास्ते अतींद्रिय अर्थोंके साक्षात् द्रष्टाके अभावसे नित्य ऐसें वेदवाक्योंसें यथावस्थित पदार्थत्वका विशेष निर्णय होता है ॥२॥ इस वास्ते प्रथम प्रयनसें वेदपाठ करना, पीछे धर्मसाधन करनेवाली धर्मजिज्ञासा करनी॥३॥ वेदवचनकृतनोदना, प्रेरणालक्षण धर्म, और नोदना क्रियके प्रतिप्रवतकका वचन, जैसे खर्गका कामी अग्निका यजन करे ॥४॥ और जिन सूक्तोंसें ईश्वरका खरूप कथन करा है, सो भी प्रमाणयुक्तिसें बाधित है, सो स्वरूप थोडासा आगेकों लिख दिखावेंगे. और वेदोंकी उत्पत्ति जनमतवाले जैसें मानते हैं, तैसें जैनतत्वादर्श नामक (संवत १९४० का छपा) पुस्तकके ५१० सें लेके ५२२ पृष्ठतक जाननी. ब्राह्मण लोक जिसतरें वेदकी संहिता उत्पन्न भई मानते हैं, तैसें.महीधरकृत यजुर्वेदभाष्य, और अज्ञानतिमिरभास्कर ग्रंथसें जान लेनी. इस वास्ते वेद सर्वज्ञ अष्टादश दूषणरहित भगवंतके कथन करे हूए नहीं हैं, तो फेर ये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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