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प्रथमस्तम्भः। कर क्रोधित हुआ, उसको इंद्र पीछा ल्याया, फेर तिसके ताइ सोमदिया, इस अर्थका वर्णन है.
१०-अंगराज किसी दिनमें अपनी राणीयांके साथ गंगामें जलक्रीडा करता हुआ, तिस समयमें दीर्घतमा नाम ऋषिकों अपने स्त्री, पुत्र, नौकरादिकोंने दुर्बल होनेसें कुछभी नही कर सक्ता है, ऐसे द्वेषसे गंगामें वहा दिया; सो ऋषि वहता हुआ अंगराजके क्रीडाप्रदेशमें आ लगा. राजाने सर्वज्ञ जाणके तिस ऋषिकों बहार निकाला, और कहा कि, हे भगवन् ! मेरे पुत्र नही हैं; यह पट्टराणी है, इसके विषं किसी पुत्रकों उत्पन्न कर. ऋषिनें मान लिया. पट्टराणीने भी राजाकेपास मान लिया. पीछे यह अतिशय वृद्ध जुगुप्सित मेरे योग्य नहीं है, ऐसी अपनी बुद्धिकरके विचारके राणीने अपनी उशित नामा दासीकों भेजी. तिस सर्वज्ञ ऋषिने मंत्रपवित्र पानी करके दासीकों सिंचन करी; सो दासी ऋषिपत्नी हुई; तिसविषे कक्षीवान् नाम ऋषि उत्पन्न हुआ, सोही राजाका पुत्र हुआ. उसने बहुविध राजसूयादि यज्ञ करे, तिसके करे यज्ञोंसें तुष्टमान होके इंद्रने वृचया नामा स्त्री तिसके तांइ दीनी. तथा हे इंद्र! तूं वृषणश्व नाम राजाकी कन्या होता भया, जिसका नाम मेना था.-इत्यादि वर्णनका संक्षेप है.
इत्यादि प्रायः सारा ऋग्वेद इसीसे परिपूर्ण है. यजुर्वेदादिमें भी सिवाय हिंसा और प्रार्थनाके और कुछभी प्रायः नहीं है. और जो ऋग्वेदके सातमे मंडलमें ईश्वरकी स्तुति और स्वरूप लिखा है, सो सर्व सूक्त नवीन हैं. क्योंकि, तिनकी संस्कृत अन्य अष्टक मंडल सूक्तोंसें अन्य तरेकी शुद्ध मार्जन करी हुई मालुम होती है. दयानंदस्वामीजीने इन सूक्तोंके अर्थभी प्राचीन अर्थोसें उलटे करे हैं; परंतु इससे कुछ पंडि. ताई हांसल नहीं होती है. भवभीरु और पंडितोंका तो यही काम होता है, सत्यकों ग्रहण करना, असत्यको त्याग करना. और असत्यकों जो अनकल्पित अर्थ हेतु-युक्तिद्वारा सत्य सिद्ध करना है, सो तो कदाग्रहीका काम है. ओर असल प्राचीन वेदमंत्रोंमें अनीश्वरी, पूर्वमीमांसा, अर्थात् जैमनीय मतका प्रतिपादन है, इस वास्तेही मीमांसक विधि
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