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________________ ७६ सम्यक्त्वशल्योद्धार दंडा साधु को ग्रहण करना सिद्ध हो गया । आहार, शय्या, वस्त्र, पात्रवत् । तो भी साधु को दंडा रखना सूत्र अनुसार है, सो ही लिखते हैं - श्रीभगवतीसूत्र में विधिवादसे दंडा रखना कहा है सो पाठ प्रथम प्रश्नोत्तर में लिखा है। श्रीओघनियुक्तिसूत्र में दंडे की शुद्धता निमित्त तीन गाथा कही हैं। श्रीदशवैकालिक सूत्र में विधिवाद से 'दंडगंसि वा' इस शब्द कर के दंडा पडिलेहना कहा है। श्रीप्रश्नव्याकरणसूत्र में पीठ, फलक, शय्या, संथारा, वस्त्र, पात्र, कंबल, दंडा, रजोहरण, निषद्या, चोलपट्टा, मुखवस्त्रिका, पाद प्रोंछन इत्यादि मालिक के दिये बिना अदत्तादान, साधु ग्रहण न करे, ऐसे लिखा है । इससे भी साधु को दंडा ग्रहण करना सिद्ध होता है । अन्यथा बिना दिये दंडे का निषेध शास्त्रकार क्यों करते ? श्रीप्रश्न व्याकरणसूत्र का पाठ यह है । ___अवियत्त-पीढ-फलग-सेजा-संथारग-वत्थ-पाय-कंबल-दंडगर-औहरण-निसे जं चोलपट्टग-मुहपोत्तिय-पादपुंछणादि भायणं भंडोवहिउवगरणं ।। ___इत्यादि अनेक जैनशास्त्रों में दंडे का कथन है, तो भी अज्ञानी ढूंढक बिना समझे बिलकुल असत्य कल्पना कर के इस बात का खंडन करते हैं । (जो कि किसी प्रकार भी हो नहीं सकता है) सो केवल उनकी मूर्खता का ही सूचक है। प्रश्न के अंत में जेठमल ढंढकने "सात क्षेत्रों में धन खरचाते हो । उस से चहट्टे के चोर होते हो" ऐसा महा मिथ्यात्व के उदय से लिखा है। परन्तु उस का यह लिखना ऊपर के दृष्टांतों से असत्य सिद्ध हो गया है । क्योंकि सूत्रों में सात क्षेत्रों में द्रव्य खरचना कहा है, और इसी मुताबिक प्रसिद्ध रीते श्रावक लोग द्रव्य खरचते हैं, और उस से वह पुण्यानुबंधि पुण्य बांधते हैं, इतना ही नहीं, बल्कि बहुत प्रशंसा के पात्र होते हैं । यह बात कोई| छिपी हुई नहीं है परन्तु असली तहकीकात करने से मालूम होता है कि चौटे के चोर तो वही हैं जो सूत्रों में कही हुई बातों को उत्थापते हैं । सूत्रों को उत्थापते हैं, अर्थ फिरा लेते हैं शात्रोक्त वेश को छोड के विपरीत वेश में फिरते है। इतना ही नहीं परन्तु शासन के अधिपति श्रीजिनराज के भी चोर हैं और इस से इन को निश्चय राज्यदंड (अनंत संसार) प्राप्त होनेवाला है। १९. द्रौपदी ने जिनप्रतिमा पूजी है : १९ वें प्रश्नोत्तर में द्रोपदी के जिनप्रतिमा पूजने का निषेध करने वास्ते जेठमल ने बहुत कुतर्क किये हैं, परन्तु वे सर्व झूठ है। इस वास्ते क्रम से उन के उत्तर लिखते हैं। | श्रीज्ञातासूत्र में द्रौपदी ने जिनमंदिर में जा कर जिन प्रतिमा की (१७) सतरे भेदे | पूजा की, नमोत्थुणं कहा, ऐसा खुलासा पाठ है- यत - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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