SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७७ तएणं सा दोवइ रायवर कन्ना जेणेव मजणघरे तेणेव उवागच्छइ मजणघर मणुप्पविसइ पहाया कयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता सुद्धपावेसाई वत्थाई परिहियाइं मजणघराओ पडिणिक्खमइ जेणेव जिनघरे तेणेव उवागच्छइ जिनघरमणुपविसइ पविसईत्ता आलोए जिणपडिमाणं पणामं करेइ लोमहत्थयं परामुसइ एवं जहा सुरियाभो जिणपडिमाओ अच्छेइ तहेव भाणियव्वं जाव धुवं डहइ धुवं डहइत्ता वामं जाणु अंचेइ अंचेइत्ता दाहिण जाणु धरणी तलंसि निहट्ट तिखुत्तो मुद्धाणं धरणी तलंसि निवेसेइ निवेसइत्ता इसिं पञ्चुणमइ करयल जाव कट्ट एवं वयासि नमोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं वंदइ नमसइ जिन घराओ पडिणिक्खमइ ।। ___ अर्थ - तब लो द्रौपदी राजवरकन्या जहां स्नान मजन करने का घर (मकान) है वहां आवे, मजनघर में प्रवेश करे, स्नान करके किया है बलिकर्म पूजाकार्य अर्थात् घर, देहरे में पूजा कर के कौतुक तिलकादि मंगल दधि दूर्वा अक्षतादिक सो ही प्रायश्चित्त दुःस्वप्नादि के घातक किये हैं जिसने शुद्ध और उज्ज्वल बडे जिनमंदिर में जाने योग्य ऐसे वस्त्र पहिन के मजनघर में से निकले । जहां जिनघर है वहां आवे, जिनघर में प्रवेश करे, कर के देखते ही जिनप्रतिमा को प्रणाम करे । पीछे मोरपीछी ले, लेकर जैसे सूर्याभ देवता जिन प्रतिमा को पूजे वैसे सर्व विधि जानना, सो सूर्याभका अधिकार यावत् धूप देने तक कहना । पीछे धूप दे के बामजानु (खब्बा गोडा) ऊंचा रखे, दाहिना जानु (सजा गोडा) धरती पर स्थापन करे, कर के तीन बार मस्तक पृथ्वी पर स्थापे, स्थाप के थोडी सी नीचे झुक के, हाथ जोड के, दशों नखों को मिला के मस्तक पर अंजलि कर के ऐसे कहे । नमस्कार होवे अरिहंत भगवंत प्रति यावत् सिद्धिगति को प्राप्त हुए हैं, यहाँ यावत् शब्द से संपूर्ण शक्रस्तव कहना, पीछे वंदना नमस्कार कर के जिनघर से निकले । पूर्वोक्त प्रकार के सूत्रों में कथन हैं तो भी मिथ्यादृष्टि ढूंढिये जिन प्रतिमा की पूजा नहीं मानते हैं । सो उनको मिथ्यात्वका उदय है। __ जेठमल ने लिखा है कि "किसीने वीतराग की प्रतिमा पूजी नहीं है और किसी नगरी में जिनचैत्य कहे नहीं है" इसका उत्तर- श्रीउनवाईसूत्र में चंपानगरी में "बहुला अरिहंत चेइयाई" अर्थात् बहुते अरिहंत के चैत्य हैं ऐसे कहा है, और अन्य सब नगरियों के वर्णन में चंपानगरी की भलावणा सूत्रकार ने दी है, तो इस से ऐसे निर्णय होता है कि सब नगरियों में महल्ले महल्ले चंपानगरी की तरह जिन मंदिर थे । तथा आनंद, कामदेव, शंख, पुष्कली प्रमुख श्रावकों तथा श्रेणिक, महाबल प्रमुख राजाओं की की गई पूजा का अधिकार सूत्रोमें बहुत जगह है । इस वास्ते जिस जगह पूजाका अधिकार है उस जगह जिनमंदिर तो है ही। इसमें कोई शक नहीं तथा उन श्रावकों के पूजा के अधिकार में "कयबलि कम्मा" शब्द खुलासा है । जिस का अर्थ स्वपर सब दर्शन में 'देवपूजा' ही होता है । इस वास्ते बहुत श्रावकों ने जिन प्रतिमा पूजी है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy