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तो सही सब जीव एक सरीखे पुण्यवान् नहीं होते हैं, कोई गरीब कंगाल भी होते हैं| कि जिन को खानेपीने की भी तंगी पडती है। तो वैसे गरीब सधर्मी को द्रव्य देकर मदद करनी। उन को आजीविका में सहायता देनी यह धनाढ्य श्रावकों का फरज है। इस वास्ते धनी गृहस्थी अपने सहधर्मियों को मदद करते हैं। और जो अपने में शक्ति न हो तो उस क्षेत्र निमित्त निकाले धन में से सहायता करते हैं और सहधर्मी को सहायता करे, यह कथन श्रीउत्तराध्ययनसूत्र के अठाईसवें अध्ययन में है।
जेठमल लिखता है कि "श्रावक दीन अनाथ को अंतराय दे नहीं " यह बात सत्य है, परंतु पूर्वोक्त लेख को विचार के देखोगे तो मालूम हो जावेगा कि इस से दीन अनाथ को कोई अंतराय नहीं होती है, तथा इस रीति से श्रावकों को दिया द्रव्य खैरायत का भी नहीं कहाता है। ऊपर के लेख से शास्त्रों में सात क्षेत्र कहे हैं। उन में द्रव्य लगाने से अच्छे फलकी प्राप्ति होती है, और सुश्रावकों का द्रव्य उन क्षेत्रों में खरच होता था, और हो रहा है, ऐसे सिद्ध होता है। इस प्रसंग में जेठमल ने श्रीदशवैकालिकसूत्र की यह गाथा लिखी है - तथाहिः
पिंडं सिजं च वत्थं च चउत्थं पायमेव य ।
अकप्पियं न इच्छिजा पडिग्गाहिं च कप्पियं ।।४८।। इस श्लोक का अर्थ प्रकट रूप से इतना ही है कि आहार, शय्या, वस्त्र और चौथा पात्र यह अकल्पनिक लेने की इच्छा न करे, और कल्पनिक ले लेवे । तथापि जेठमल ने दंडे को अकल्पनिक ठहराने वास्ते पूर्वोक्त श्लोक के अर्थ में 'दंडा' यह शब्द लिख दिया है और उस से भी जेठमल दंडे को अकल्पनिक सिद्ध नहीं कर सका है। बल्कि जेठमल के लिखने से ही अकल्पनिक दंडे का निषेध करने से कल्पनिक
१ श्रीउत्तरायध्ययन सूत्र का पाठ यह है :
निस्संकिय निक्कखिय निव्वितिगिच्छा अमृढ दिठीय ।
उववूह थिरीकरणे वच्छल्ल पभावणे अठ्ठ ।। ३१ ।। टीका - निःशंकितं देशतःसर्वतश्चशंकारहितत्वं पुनर्निःकांक्षितत्वं शाक्याद्यन्यदर्शनग्रहणवाञ्छारहितत्वं
निर्विचिकित्स्यं फलं प्रति सन्देहकरणं विचिकित्सा निर्गता विचिकित्सा निर्विचिकित्सा तस्य भावो निर्विचिकित्स्यं किमेतस्य तपः प्रभृतिलेशस्य फलं वर्तते नवेति लक्षणं अथवा विदन्तीति विदः साधवस्तेषां विजुगुप्सा किमेते मल मलिनदेहाः अचित्तपानीयेन देहं प्रक्षालयतां को दोषः स्यादित्यादि निन्दा तदभावो निर्विजुगुप्स प्राकृतार्षत्वात्सूत्रे निर्विचिकित्स्यं इति पाठः । अमूढा दृष्टि रमूढदृष्टि ऋद्धिमत्कुतीर्थिकानां परिव्राजकादिनामृद्धिं द्रष्ट्वा अमूढा किमस्माकं दर्शनं यत्सर्वथादरिद्राभिभूतं इत्यादि मोहरहिता दृष्टिर्बुद्धिरमूढदृष्टिः । यत्परतीर्थिनांभूयसीमृद्धिं दृष्ट्वापि स्वकीयेऽकिञ्चने धर्मे मतेः स्थिरीभावः । अयं चतुर्विधोप्याचार अन्तरंग उक्तोऽथबाह्याचारमाह । उपबृंहणा दर्शनादिगुणवतां प्रशंसा पुनः स्थिरीकरणं धर्मानुष्ठानं प्रति सीदतां धर्मवतां पुरुषाणां साहाय्यकरणेन धर्मेस्थिरीकरणं पुनर्वात्सल्यं साधर्मिकाणां भक्तपानाद्यैर्भक्तिकरणं पुनः प्रभावना च स्वतीर्थोन्नतिकरणमेतेऽष्टौ आचाराः सम्यकस्य ज्ञेया इत्यर्थः ।।३१।।
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