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________________ निक्षेपा शुद्ध है, उस का नाम, स्थापना, तथा द्रव्य वंदने पूजने योग्य हैं । परंतु जिस का भाव अशुद्ध है उस का नाम, स्थापना तथा द्रव्य निक्षेपा भी अशुद्ध है । इस वास्ते सो वंदने पूजने योग्य नहीं है । और इसी वास्ते जमाली गोशाला आदि वंदनीय नहीं है । क्योंकि उन का भाव निक्षेपा अशुद्ध है । जैसे तुम ढूंढिये जैन साधु का नाम धराते हो और थोडा सा जैन साधु के सदृश उपकरणादि वेष रखते हो, परंतु शुद्ध | परंपरा वाले सम्यग्दृष्टि श्रावक तुमको मानते नहीं है । वैसे ही जमाली गोशाला आदि का भी जान लेना । तथा तुम्हारे कुपंथ में भी जो फंसे हुए है, जब उन को यथार्थ शुद्ध | जैनधर्म का ज्ञान होता है, उसी समय जमाली के शिष्यों कि तरह तुम को छोड के शुद्ध जैन मार्ग को अंगीकार कर लेते हैं, और फिर वह तुम्हारे सन्मुख देखना भी पसंद | नहीं करते हैं । फिर जेठा लिखता है, कि " जैसे मरे भरतार की प्रतिमा से स्त्री की कुछ भी गरज नहीं सरती है, वैसे जिन प्रतिमा से भी कुछ गरज नहीं सरती है । इस वास्ते स्थापना निक्षेपा वंदनीय नहीं है" इस का उत्तर जिस स्त्री का भरतार मर गया हो, वह स्त्री | यदि आसन बिछा कर अपने पति का नाम ले तो क्या उसकी भोग वा पुत्रोत्पत्ति आदि की गरज सरे ? कदापि नहीं, तब तो तुम ढूंढकों को चौबीस तीर्थंकरों का जाप भी नहीं करना चाहिये, क्योंकि इस से तुम्हारे मत मुताबिक तुम्हारी कुछ भी गरज नहीं | सरेगी । वाह रे जेठे मूढमते ! तूने तो अपने ही आप अपने पग में कुहाडा मारा इतना ही नहीं परंतु तेरा दिया दष्टांत जिन प्रतिमा को लगता ही नहीं है । फिर जेठमलजी कहते हैं, कि " अजीव रूप स्थापना से क्या फायदा होवे ? " उत्तर जैसे संयम के साधन वस्त्र पात्रादिक अजीव हैं, परंतु उस से चारित्र साधा जाता है । | वैसे ही जिन प्रतिमा की स्थापना ज्ञानशुद्धि तथा दर्शनशुद्धि आदिका हेतु है । जिसका अनुभव सम्यग्दृष्टि जीवों को प्रत्यक्ष है, तथा जैनशास्त्रों में कहा है कि लड़के रास्ते में | लकडी का घोडा बना के खेलते हो, वहाँ साधु जा निकलें तो "तेरा घोडा हटा लें ऐसे उस को घोडा कहे, परंतु लकडी ना कहे । यदि लकडी कहे तो साधु को असत्य लगे, | इस बात को प्रायः ढूंढिये भी मानते हैं तो विचारना चाहिये कि इस में घोडापन क्या है ? | परन्तु घोडे की स्थापना की है; तो उसको घोडा ही कहना चाहिये, इस वास्ते स्थापना सत्य समझनी । तथा तुम ढूंढिये खंड के कुत्ते, गौ, भैंस, बैल, हाथी, घोडे, सुअर, आदमी, वगैरह खिलोने खाते नहीं हो, उनमें जीवपना तो कुछ भी नहीं है, परंतु जीवपने की स्थापना है, इस वास्ते खाने योग्य नहीं है । 'क्योंकि इस से पंचेंद्री जीव की घात १ ५३ कितनेक अज्ञानी ढूंढिये जिन प्रतिमा के द्वेष से आजकल इस बात को भी मानने से इनकारी होते हैं, यथा जिला लाहौर मुकाम माझा पट्टी में सिरीचंद नामा ढूंढक साधु को एक मुगल ने पूछा कि आप कुत्ते, गौ, भैंस, बैल, वगैरह खंड के खिलौने खाते हैं ? जवाब मिला कि बडी खुशी से वाह ! अफसोस !!! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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