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सम्यक्त्वशल्योद्धार
जितना पाप लगता है, ऐसे तुम कहते हो । तो इस कथनानुसार तुम्हारे मानने मुताबिक ही स्थापना निक्षेपा सिद्ध होता है । तथा श्री समवायांगसूत्र, दशाश्रुतस्कंधसूत्र, दशवैकालिकादि अनेक सूत्रों में तैंतीस आशातना में गुरु संबंधी पाट, पीठ, संथारा आदि को पैर लग जावे, तो गुरु की आशातना होवे, ऐसे कहा है । इस पाठ से भी स्थापना निक्षेपा वंदनीय सिद्ध होता है, क्योंकि यह वस्तु भी तो अजीव है। जैसे पूर्वोक्त वस्तुओं में गुरु की स्थापना होने से अविनय करने से शिष्य को आशातना लगती है, और विनय करने से शिष्य को शुभफल होता है। ऐसे ही श्रीजिन प्रतिमा की स्थापना से भी जान लेना । तथा देवताओं ने प्रभु की वंदना पूजा की उस को जीत आचार में गिन के उससे देवता को कुछ भी पुण्य बंध नहीं होता है ऐसा सिद्ध किया है, परंतु अरे मूर्ख शिरोमणि ढूंढको ! जीत आचार किस को कहते है ? सो भी तुम समझते नहीं हो, और कुछ भी न बन आवे तो इतना तो अवश्यमेव करना । उस का नाम " जीत आचार" जैसे श्रावकों का जीत आचार है कि मदिरा का पान नहीं करना, दो वक्त प्रतिक्रमण करना वगैरह अवश्यकरणीय है । तो उस से पुण्य बंध नहीं होता है, ऐसे किस शास्त्रामें है ? इस से तो अधिक पुण्य का बंध होता है। यह बात निःसंशय है । तथा श्रीजंबूद्वीपपन्नत्ति में तीर्थ कर के जन्ममहोत्सव करने को इंद्रादिक देवता आए हैं, वहां अकेला जीत शब्द नहीं है, किंतु वंदना, पूजना, भक्ति, धर्मादि को जानके आए लिखा है। और उववाइसूत्र में जब भगवान् चंपानगरी में पधारे थे वहां भी इसी तरह का पाठ है। परंतु जेठे मूढमति को दृष्टिदोष से यह पाठ दिखा मालूम नहीं होता है।
तथा मूर्ख शिरोमणि जेठा लिखता है, कि " बनिये लोग अपना कुलाचार समझ के मांसभक्षण नहीं करते हैं । इस वास्ते उन को पुण्य बंध नहीं होता है ।" इस लेख से जेठे ने अपनी कैसी मूर्खता दिखलाई है सो थोडे से थोडी बुद्धि वाले को भी समझ में आ जावे ऐसी है । अरे ढूंढियों ! तुम्हारे मन से तुम को उस वस्तु के त्याग ने से पुण्य का बंध नहीं होता होगा, परंतु हम तो ऐसे समझते हैं कि जितने सुमार्ग और पुण्य के रास्ते है, वे सर्व धर्मशास्त्रानुसार ही हैं । इस वास्ते धर्मशास्त्रानुसार ही मांसमदिरा के भक्षण में पाप है, यह स्पष्ट मालूम होता है । और इस वास्ते सर्व श्रावक उनका त्याग करते हैं, और पूर्वोक्त अभक्ष्य वस्तु के त्यागने से महा पुण्य बांधते हैं।
तथा नमुत्थुणं कहने से इंद्र तथा देवताओंने पुण्य का बंध किया है यह बात भी निःसंशय है
तथा इंद्र ने भी थूभ करा के महा पुण्य उपार्जन किया है, और अन्य श्रावकों ने तथा राजाओं ने भी जिनमंदिर कराये हैं, और उस से सुगतिप्राप्त करी है; जिस का वर्णन प्रथम लिख चूके हैं। फिर जेठा लिखता है कि " जिन प्रतिमा देख के शुभ ध्यान पैदा होता है, तो मल्लिनाथजी को तथा उन की स्त्रीरूप की प्रतिमा को देख के राजा
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