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________________ जेठमल लिखता है कि "कृष्ण तथा श्रेणिक को आगामी चौवीसी में तीर्थंकर होने का जब भगवंत ने कहा तब उन को द्रव्य जिन, जान कर किसी ने वंदना क्यों नहीं की ?" -यह लिखना बिलकुल विपरीत है। क्योंकि उस ठिकाने वंदना करने वा न करने का अधिकार नहीं है । तथापि जेठे ने स्वमति कल्पना से लिखा है, कि किसी ने वंदना नहीं की है तो बताओं ऐसे कहां लिखा है ?* और मल्लिकुमारी स्त्री वेष में थी । इस वास्ते वंदनीय नहीं वैसे ही उसकी स्त्रीवेष की प्रतिमा भी वंदनीय नहीं तथा स्त्री तीर्थंकरी का होना आश्चर्य में गिना जाता है। इस वास्ते सो विध्यनुवाद में नहीं आ सकता है। * श्रीप्रथमानुयोगः शास्त्र जिसमें इतनी बातों का होना श्रीसमवायांगसूत्र तथा 'श्रीनंदिसूत्र में फरमाया है। तथा हि :से कि तं मूलढमाणुओगे एत्थणं अरहताणं भगवंताणं पूव्वभवा देवलोगगमणाणि आउचवणाणि जम्मणाणिअ-अभिसेय-रायवरसिरीओ सीआओ पव्वजाओतवोयभत्ताकेवलणाणुप्पाओतित्थपवत्तणाणिय संघयण संठाण उच्चत्त आउ वन्न विभागो सीसा गणा गणहरा अजा पवत्तणीओ संघस्स चउविहस्स जं वावि परिमाणं जिणामण पजव ओहिनाणि सम्मत्तसुयनाणिणोय वाई अणुत्तर गइय जत्तिया सिद्धा पावोवगओय जो जहिं जत्तियाई भत्ताई छेइत्ता अंतगडो मुणिवरुत्तमो तमरओघ विप्पमुक्का सिद्धि पह मणुत्तरं च पत्ता एए अन्नेय एवमाइया भावा मूल पढमाणुओगे कहिआ आद्य विजंति पण्णविजंति से तं मूलपढमाणुओगे भावार्थ - मूलपढमानुयोग में अरिहंत भगवंत के पूर्वभव देव लोक गमन आउखाच्यवन जन्म अभिषेक राज्य लक्ष्मी दीक्षा की पाल की दीक्षा तप केवलज्ञान तीर्थ की प्रवृत्ति संघयण संठाण ऊंचाई आउखा वर्ण शिष्य गच्छ गणधर आर्या बडी साध्वी चार प्रकार के संघ का आचारविचार केवली मनःपर्यंत ज्ञानी अवधि ज्ञानी मति ज्ञानि श्रुत ज्ञानी वादी अनुत्तर विमान में जाने वाले जितने साधु, जितने साधु कर्म क्षय कर के मोक्ष गये, पादपोपगमन अनशन का अधिकार जो जहां जितने भक्त कर के अन्तकृत् केवली हुए मुनिवर उत्तम अज्ञान रज रहित प्रधान मोक्षमार्ग को प्राप्त हुए इत्यादि और भी बहुत भाव मूल प्रथमानुयोगशास्त्र में कहे हैं। उसमें तथा त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्रादि शास्त्रों में लिखा है कि : "एकदा भरतचक्रवर्ती ने श्री ऋषभदेव को पूछा कि है भगवन् ! इस समवसरण में कोई ऐसा भी जीव है, जो कि इस अवसर्पिणी में तीर्थकर होगा तब भगवन्त ने कहा कि हे भरत ! तेरे पुत्र मरिचि का जीव इस भरतक्षेत्र में त्रिपृष्ठ नामा प्रथम वासुदेव होगा । मूका राजधानी में चक्रवर्ती होगा, और इसी भरतक्षेत्र में इसी अवसर्पिणी में महावीर नामा चौवीसवाँ तीर्थंकर होगा । यह सुन कर भगवन्त को नमस्कार करके मरिचि के पास जा कर कहा कि हे मरिचि मैं तेरे वासुदेवपने को नमस्कर नहीं करता हूं, चक्रवर्तीपने को नमस्कार नहीं करता हूं, परन्तु तू इस अवसर्पिणी में महावीर नामा चौबीसवाँ तीर्थकर होगा। में तेरी उस अवस्था को नमस्कार करता हूं। ऐसे कह कर मरिचि को तीन प्रदक्षिणापूर्वक भरत चक्री ने नमस्कार किया । अनेक ढूंढिये यह बात मानते हैं, और पर्षदा में सुनाते भी हैं । तथापि यदि दूँढिये यह बात नहीं मानते हैं, तो हम उन से पूछते हैं कि बताओ श्रीमहावीरस्वामी के जीवने किस जगह किस समय किस कारण से ऐसा कर्म उपार्जन किया कि जिस के प्रभाव से श्रीमहावीरस्वामी के भव में ब्राह्मणी की कूख में पैदा होना पडा ? जब ऐसे २ प्रत्यक्ष पाठ हैं तो फिर मंद मति'जेठे के लिखने से द्रव्य निक्षेपा वंदनीय नहीं है ऐसे मानने वालों को महा मिथ्या दृष्टि कहने में क्या कुछ अत्युक्ति है ? नहीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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