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सम्यक्त्वशल्योद्धार
अर्थ दश प्रकार के सत्य कहे हैं, तद्यथा । १. जनपदसत्य, २. सम्मतसत्य, ३. स्थापनासत्य, ४. नामसत्य, ५. रूपसत्य, ६. प्रतीतसत्य, ७. व्यवहारसत्य, ८. भावसत्य, ९. योगसत्य, और १०. दशवाँ उपमासत्य ।
इस सूत्र पाठ से स्थापना निक्षेपा सत्य और वंदनीय ठहरता है । तथा चौवीस | जिन की स्तवना रूप लोगस्सका पाठ उच्चारण करते हुए ऋषभादि चौवीस प्रभु के नाम प्रकटपने कहते हैं और वंदना करते हैं सो वंदना नाम निक्षेप को है । तथा श्री ऋषभदेव भगवान् के समय में चौवीसत्था पढ़ते हुए अन्य २३ जिनको द्रव्य निक्षेप वंदना होती थी और काउसग्ग करने के आलावे में "अरिहंत चेइयाणं करेमि काउसग्गं | गंदणवत्तिआए" इत्यादि पाठ पढते हुए स्थापना निक्षेपा वंदनीय सिद्ध होता है । और | यह पाठ श्रीआवश्यकसूत्र में है । इस आलावे को ढूंढिये नहीं मानते है । इस वास्ते | उन के मस्तक पर आज्ञाभंग रूप वज्रदंड का प्रहार होता है ।
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श्रीभगवतीसूत्र की आदि में श्रीगणधरदेव ने ब्राह्मी लिपि को नमस्कार किया है सो | जैसे ज्ञान का स्थापना निक्षेपा वंदनीय है वैसे ही श्रीतीर्थंकरदेव का स्थापना निक्षेपा भी वंदना करने योग्य है ।
तथा अरे ढूंढियो ! तुम जब 'लोगस्सउज्जोअगरे' पढते हो तब "अरिहंते कित्तइस्सं "। इस पाठ से चौवीस अरिहंत की कीर्तना करते हो, सो चौवीस अरिहंत तो इस | वर्तमानकाल में नहीं है तो तुम वंदना किन को करते हो ? यदि तुम कहोगे कि जो | चौवीस प्रभु मोक्ष में हैं उन की हम कीर्तना करते हैं तो वह अरिहंत तो अब सिद्ध हैं । | इसवास्ते 'सिद्धे कित्तइस्स' कहना चाहिये । परंतु तुम ऐसे कहते नहीं हो ? कदापि कहोगे कि अतीत काल में जो चौवीस तीर्थंकर थे उन को वंदना करते हैं तो अतीत काल में जो वस्तु हो गई सो द्रव्य निक्षेपा है; और द्रव्यनिक्षेपे को तो तुम वंदनीय नहीं मानते हो । तो बतावो तुम वंदना किन को करते हो ? यदि ऐसे कहोगे कि अतीत कालमें जैसे अरिहंत थे वैसे अपने मन में कल्पना कर के वंदना करते हैं, तो वह स्थापना निक्षेपा है । और स्थापना निक्षेपा तो तुम मानते नहीं हो, तो बताओ तुम बंदना किन को करते हो ? अंत में | इस बात का तात्पर्य इतना ही है कि ढूंढिये अज्ञान के उदय से और द्वेषबुद्धि से भाव निक्षेपे बिना अन्य निक्षेपे वंदनीय नहीं मानते हैं परंतु उन को वंदना जरूर करनी पड़ती हैं
और स्थापना अरिहंत को आनंद श्रावक, अंबड तापस, महासती द्रौपदी, वग्गुर श्रावक, तथा प्रभावती प्रमुख अनेक श्रावक श्राविकाओं ने और श्रीगौतमस्वामी, | जंघाचारण, विद्याचारणादि अनेक मुनियों ने, तथा सूर्याभ, विजयादि अनेक देवताओं ने वंदना की है, उन के अधिकार सूत्रों में प्रसिद्ध हैं । श्रीमहानिशीथसूत्र में कहा है। कि साधु प्रतिमा को वंदना न करे तो प्रायश्चित्त आवे । इस तरह नाम और स्थापना वंदनीय हैं, तो द्रव्य और भाव वंदनीय हैं इस में क्या आश्चर्य !
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