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________________ सम्यक्त्वशल्योद्धार श्रावक ने पूजा की हो, तो सूत्रपाठ दिखाओ, मतलब यह कि जेठे ने तुंगीया नगरी के श्रावक ने घर के देव की पूजा की, इस विषय में जो कुतर्क किया हैं, सो सर्व उसकी | मूढता की निशानी है । तुंगीया नगरी के श्रावक ने अपने घर में रहे जिनभवन में अरिहंतदेव की पूजा की । यह तो निःसंदेह है, श्री उपासक दशांगसूत्र में आनंद श्रावक के अधिकार में जैसा पाठ है, वैसा सर्व श्रावकों के वास्ते जानलेना । इस वास्ते | मूढमति जेठे ने जो गोत्रदेवता की पूजा तो श्रावक के वास्ते सिद्ध की, और जिन - प्रतिमा की पूजा निषेध की, सो उसका महा मिथ्यादृष्टित्व का चिह्न है । 1 ॥ इति ॥ ४२ ९. सिद्धायतन शब्द का अर्थ : नव में प्रश्नोत्तर में जेठे मूढमति `सिद्धायतन' शब्द के अर्थ को फिरा ने वास्ते अनेक युक्तियां की हैं, परंतु वे सर्व झूठी हैं क्योंकि 'सिद्धायतन यह गुण निष्पन्न नाम है । सिद्ध कहिये शाश्वती अरिहंत की प्रतिमा, उसका आयतन कहिये घर, सो सिद्धायतन | यह इसका यथार्थ अर्थ है । जेठे ने सिद्धायतन नामगुण निष्पन्न नहीं है, | इसकी सिद्धि के वास्ते ऋषभदत्त और संजति राजा प्रमुख का दृष्टांत दिया है, कि जैसे | यह नामगुण निष्पन्न मालूम नहीं होते हैं, वैसे सिद्धायतन भी गुण निष्पन्न नाम नहीं है । यह उसका लिखना असत्य है, क्योंकि शास्त्रकारो ने सिद्धांतो में वस्तु निरूपण | जो नाम कहे हैं वे सर्व नाम गुण निष्पन्न ही हैं, यथा - १. अरिहंत २. सिद्ध, ३. आचार्य, ४ उपाध्याय, ५. साधु, ६. सामायिक चारित्र, ७. छेदोपस्थापनीय चारित्र, ८. परिहार विशुद्धि चारित्र, ९. सूक्ष्मसंपराय चारित्र, १०. यथाख्यात चारित्र, १९. जंबूद्वीप, १२. लवणसमुद्र, १३. धातकीखंड, १४. कालोदधिसमुद्र, १५. धृतवरसमुद्र, १६. दधिवरसमुद्र, १७. क्षीरवरसमुद्र, १८. वारुणीसमुद्र, १९ श्रावक के बारह व्रत, ३१. श्रावक की एकादश पडिमा ४२. एकादश अंग के नाम, ५३. बारह उपांग के नाम, ६५. चुल्लहिमवान् पर्वत, ६६. महाहिमवान् पर्वत, ६७. रूपीपर्वत, ६८. निषधपर्वत, ६९. नीलवंतपर्वत, ७०. नम्मुक्कार | सहितं इत्यादि दश पञ्चक्खाण, ८०. छैलेश्या, ८६. आठ कर्म इत्यादि वस्तुओंके नाम जैसे गुणनिष्पन्न है, वैसे सिद्धायतन भी गुणनिष्पन्न ही नाम है । दूसरे लौकिक नाम कथा निरूपणमें ऋषभदत्त, संजतिराजा आदि कहे हैं, वे गुणनिष्पन्न होवे भी और ना भी होवे, क्योंकि वे नाम तो उन के मातापिताके स्थापन किये हुए होते है । महापुरुष बाबत लिखा है सो वे महा पाप के करने वाले थे, इस वास्ते महापुरुष कहे हैं । उस में कुछ बाधा नहीं है, परंतु इस बात का ज्ञान जो जैनशैली के जानकार हो और अपेक्षा को समझने वाले हो, उनको होता है । जेठमल सरिखे मृषावादी और | स्वमति कल्पना से लिखने वाले को नहीं होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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