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________________ ३८ ७. श्रीशत्रुंजय शाश्वता है : सातवें प्रश्नोत्तर में जेठेने लिखा है कि "जम्बूद्वीपपन्नत्ति सूत्र में कहा है कि भरतखंड में वैताढ्य पर्वत और गंगासिन्धु नदी वर्जके सर्व छट्ठे आरे में विरला जायेंगे, | तो शत्रुंजय तीर्थ शाश्वता किस तरह रहेगा" इस का उत्तर यह पाठ तो उपलक्षण मात्र | है क्योंकि गंगासिन्धु के कुंड, ऋषभकूट पर्वत (७२) बिल, गंगासिंधु की वेदिका प्रमुख | रहेंगे वैसे शत्रुंजय भी रहेगा ! जेठा लिखता है कि "कि पर्वत नहीं रहेगा, ऋषभकूट रहेगा । वाह रे दिन में आंधे जेठे ! सूत्र में तो लिखा है उसभकूड पव्वय अर्थात् ऋषभकूट पर्वत ! और जेठा लिखता है, ऋषभकूट पर्वत नहीं ! वाह ! धन्य है ढूंढियो, तुम्हारी बुद्धि को ! और जो जेठे ने लिखा है "शाश्वती वस्तु घटती बढती नहीं है सो भी झूठ है । क्योंकि गंगासिंधु का पाट, भरतखंड की भूमिका, गंगासिंधु की वेदिका, लवण समुद्र | का जल वगैरह बढते घटते हैं । परन्तु शाश्वते हैं । वैसे शत्रुंजय भी शाश्वता है । जरा मिथ्यात्व की नींद छोड़ के जागो और देखो । फिर जेठा लिखता है "सब जगह सिद्ध हुए हैं तो शत्रुंजय की क्या विशेषता है" | इसका उत्तर तुम गुरु के चरणों की रज मस्तक को लगाते हो और सर्व जगत् की घूल (राख) तुम्हारे गुरु के चरणों से रज हो के लग चुकी है । इस वास्ते तुम्हारे मानने मुताबिक | सर्व धूल खाक टोकरी भर भर के तुम को अपने सिर में डालनी चाहिये । क्यों नहीं डालते हो ? हम तो जिस जगह सिद्ध हुए हैं, और जिन के नामठाम जानते हैं, उनको | तीर्थ रूप मानते हैं । और श्रीशत्रुंजय ऊपर सिद्ध होने के अधिकार श्रीज्ञातासूत्र तथा अन्तगड दशांगसूत्रादि अनेक जैनशास्त्रो में हैं । तथा श्रीज्ञातासूत्र में गिरनार और सम्मेतशिखर ऊपर सिद्ध होने के अधिकार हैं । | इस चौबीस के बीस तीर्थंकर सम्मेतशिखर ऊपर मोक्ष पद को प्राप्त हुए हैं । श्री जम्बूद्वीपपन्नत्ति में श्रीऋषभदेवजी का अष्टापद ऊपर सिद्ध होने का अधिकार है । श्री वासुपूज्य स्वामी चंपानगरी में और श्रीमहावीर स्वामी पावापुरी में मोक्ष पधारे हैं। इत्यादि सर्व भूमिका को हम तीर्थ रूप मानते हैं । १ सम्यक्त्वशल्योद्धार - तथा तुम भी जिस जगह जो मुनि सिद्ध हुने हो उनके नाम वगैरह का कथन बताओ' हम उस जगह को तीर्थ रूप मानेंगे क्योंकि हम तो तीर्थ मानते हैं, नहीं मानने वाले को मिथ्यात्व लगता है । Jain Education International बिचारे कहां से बतावें जिन चौबीस तीर्थंकरो को मानते हैं, उनका ही सारा वर्णन इनके मानें बत्तीस शास्त्रो में नहीं है तो अन्य का तो क्या ही कहना ? For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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