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श्रीशत्रुजय, गिरनार, आबु, अष्टापद, सम्मेतशिखर, मेरु पर्वत, मानुषोत्तर पर्वत, नंदीश्वरद्वीप, रुचकद्वीप वगैरह हैं । और उनकी यात्रा जंघाचारण विद्याचारणमुनि भी करते है, और तीर्थयात्रा का फल श्रीमहाकल्पादि शास्त्रों में लिखा है। परंतु जिसके हृदय की आंख न हो उसको कहां से दिखे और कौन दिखलावे ? जेठा लिखता है कि "पर्वत तो हट्टीसमान है। वहां हुंडी स्वीकारने वाला कोई नहीं है" वाह ! इस लेख से तो मालूम होता है कि अन्य मतावलंबी मिथ्यादृष्टियों की तरह जेठा भी अपने माने भगवान को फल प्रदाता मानता होगा ! अन्यथा ऐसा लेख कदापि न लिखता, जैनशास्त्र | में तो लिखा है कि जहां जहां तीर्थंकरो के जन्मादि कल्पाणक हुए हैं सो सो भूमि श्रावक को परिणामशुद्धि का कारण होने से स्पर्शनी चाहिये-यदुक्तं ।
निक्खमण नाण निव्वाण जम्मभूमीओ वंदइ जिणाणं ।
न य वसई साहुजणविरहियम्मि देसे बहुगुणेवि ।।२३५।। अर्थ - श्रावक जिनेश्वर संबंधी दीक्षा, ज्ञान, निर्वाण और जन्म कल्याणक की भूमि को वंदन करे; तथा साधु के विहार रहित देश में अन्य बहुत गुणों के होए भी वसे नहीं। यह गाथा श्रीमहावीरस्वामी के हस्त दीक्षित शिष्य श्रीधर्मदास गणि की कही हुई है।। __ और जेठा लिखता है कि "संघ काढने में कुछ लाभ नहीं है, और संघ काढना किसी जगह कहा नहीं है"। इसके उत्तर में लिखते हैं, कि जैनशास्त्रों में तो संघ निकालना बहुत ठिकाने कहा है । पूर्वकाल में श्रीभरतचक्रवर्ती, दंडवीर्यराजा, सगर-चक्रवर्ती श्रीशांति जिनपुत्र चक्रायुध, रामचन्द्र तथा पांडवों वगैरहने और पांचवें आरे में भी जावडशाह, कुमारपाल, वस्तुपाल, तेजपाल, बाहडमंत्रि वगैरहने बडे आडंबर से संघ निकाल के तीर्थयात्रा की हैं। और सो कल्याणकारिणी शद्ध परंपरा अब तक प्रवर्तती है। तीर्थ निमित्त संघ निकलते है, श्रीजैनशासन की प्रभावना होती है, शीशा आंखों वाले को उपयोगी होता है, आंधे को नहीं । पालणपुर और पाली में दही, छाछ, खा पी के तपस्वी नाम धारन करन हारे, ऋखों की यात्रा करने वास्ते हजारों आदमी चौमासे के दिनों में हरि सबजी निगोद वगैरह के अनंत जीवों की हानि करते गये थे। और अद्यापि पर्यंत बहुत ठिकाने लोग ढूंढिये और ढूंढनियों के दर्शनार्थ जाते हैं। तथा लींबडी में देवजी रिख को वंदना करने वास्ते कच्छ मांडवी से जानकीबाई संघ निकाल के आई थी। उस वक्त उसको छैणे बजाते हुए, गुलाल उडाते हुए, बडी धूमधाम से सामेला कर के नगर में ले आये थे। इस तरह कितने ही ढूंढिये श्रावक संघ निकाल निकाल के जाते है। इसमें तो तुम पुण्य मानते हो कि जिसकी गतिका भी कुछ ठिकाना नहीं (प्रायः तो दुर्गति ही होनी चाहिये) और श्रीवीतराग भगवान् तो निश्चय मोक्ष ही गये हैं। जिनका अधिकार शास्त्रों में ठिकाने ठिकाने है, उनका संघ वगैरह निकाल के यात्रा करने में पाप कहते हो सो तुम्हारा पाप कर्म का ही उदय मालूम होता है।
॥ इति ।।
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