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________________ सम्यक्त्वशल्योद्धार दो प्रकार के तीर्थ शास्त्र में कहे हैं १. जंगमतीर्थ और २. स्थावरतीर्थ । जंगमतीर्थ साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका चतुर्विध संघ को कहते हैं और स्थावरतीर्थ जम्माभिसेय णिक्खमण चरण णाणप्पत्तीय णिव्वाणे । दियलोय भवणमंदर णंदीसर भोम णगरेसुं ॥४८॥ अठ्ठावय मुजते गयग्गपएय धम्मचक्केय । पास रहावत्तणयं चमइरुप्यायं च वंदामि ॥४९।। गणियं णिमित्त जुत्ती संदिठी अवितहं इमं णाणं । इय एगंत मुवगया गुणपञ्चइया इमे अत्था ॥५०॥ गुणमाहप्पं इसिणाम कित्तणं सुरणरिंद पूयाय । पोराण चेइयाणियइइ एसा दंसणे होइ ॥५१।। भावार्थ-भावना दो प्रकार की है, प्रशस्त भावना और अप्रशस्त भावना; उनमें प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह तथा क्रोध, मान, माया और लोभ में अप्रशस्त भावना जाननी। यदुक्तं - “पाणवह मुसावाए अदत्तमेहुण परिग्गहे चेव । कोहेमाणे माया लोभेय हवंति अपसत्था ।।" और दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, वैराग्यादिक मे प्रशस्तभावना जाननी उनमें प्रथम दर्शनभावना जिससे दर्शन (सम्यक्त्व) की शुद्धि होती है, उसका वर्णन शास्त्रकार करते हैं। तित्थगराण भगवओ इत्यादि - तीर्थकर भगवंत, प्रवचन, आचार्यादि युगप्रधान, अतिशय ऋद्धिमंत-केवलज्ञानी मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चौदहपूर्वधारी, तथा आमर्पोषध्यादि ऋद्धि वाले, इन के सन्मुख जाना, नमस्कार करना, दर्शन करना, गुणेत्कीर्तन करना, गंधादिक से पूजन करना, स्तोत्रादिक से स्तवन करना इत्यादि दर्शनभावना जाननी; निरंतर इस दर्शनभावना के भावनेसे दर्शनशुद्धि होती है, तथा तीर्थंकरों की जन्मभूमि में तथा निःक्रमण, दीक्षा, ज्ञानोत्पत्ति और निर्वाण भूमि में तथा देवलोक भवनों में मंदिर (मेरु पर्वत) ऊपर, तथा नंदीश्वर आदि द्वीपो में पाताल भवनों में जो शाश्वत चैत्य है, उनको मैं वंदना करता हूं तथा इसी तरह अष्टापद उज्जयंतगिरि (शत्रुजय तथा गिरनार) जाग्रपद (दशार्णकूट) धर्मचक्र तक्षशिला नगरी में, तथा अहिच्छत्रा नगरी जहां धरणेन्द्रने श्रीपार्श्वनाथ स्वामी की महिमा की थी, रथावर्त पर्वत जहां श्रीवजस्वामीने पादपोपगमन अनशन किया था, और जहां श्रीमहावीरस्वामी की शरण लेकर चमरेन्द्रने उत्पतन किया था, इत्यादि स्थानों में यथा संभव अभिगमन, वंदन, पूजन, गुणोत्कीर्तनादि क्रिया करने से दर्शनशुद्धि होती है, तथा यह गणित विषय में बीजगणितादि (गणितानुयोग) का पारगामी है, अष्टांग निमित्त का पारगामी है, दृष्टिपातो नानाविध युक्ति द्रव्य संयोग का जानकार है, तथा इसको सम्यक्त्वसे देवता भी चलायमान नहीं कर सकते है । इसका ज्ञान यथार्थ हे जैसे कथन करे हैं वैसे ही होता है इत्यादि प्रकार प्रावचनिक यर्थात् आचार्यादिक की प्रशंसा करने से दर्शनशुद्धि होती है। इस तरह और भी आचार्यादि के गुण महात्म्य के वर्णन करने से, तथा पूर्व महर्षियों के नामोत्कीर्तन करने से, तथा सुरनरेन्द्रादिकी का उनकी पूजा का वर्णन करने से, तथा चिरंतन चैत्यों की पूजा करने से इत्यादि पूर्वोक्त क्रिया करने वाले जीव की तथा पूर्वोक्त क्रिया की वासना से वासित है अंतःकरण जिसका उस प्राणी की सम्यत्त्क्व शुद्धि होती है यह प्रशस्त दर्शन (सम्यत्त्कव) सबंधी भावना जाननी, इति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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