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________________ १६९ है। इस वास्ते जेठे की कल्पना असत्य है तथा श्रीनिशीथसूत्र में कहा है कि - से भिक्खु अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा वाएइ वायंतं वा साइजइ तस्स णं चउमासियं ।। अर्थ - जो कोई साधु अन्य तीर्थी को पढने दे, तथा गृहस्थी को वांचने दे अथवा वांचने देने में साहाय्य दे, उस को चौमासी प्रायश्चित्त आवे । इस बाबत जेठा लिखता है कि इस पाठ में अन्य तीर्थी तथा अन्य तीर्थी के गृहस्थ का निषेध है । परंतु वह मूर्ख इतना भी नहीं समझा है कि अन्य तीर्थी के गृहस्थ तो अन्य तीर्थी में आ गये तो फिर उसके कहने का क्या प्रयोजन ? इस वास्ते गृहस्थ शब्द से इस पाठ में श्रावक ही समझने । ___ यदि श्रावक सूत्र पढ़ते हो तो श्रीठाणांग सूत्र के तीसरे ठाणे में साधु के तथा श्रावक के तीन तीन मनोरथ कहे हैं । उन में साधु श्रुत पढ़ने का मनोरथ करे ऐसे लिखा है। श्रावक के श्रुतपढ़ने का मनोरथ नहीं लिखा है। अब विचारना चाहिये कि श्रावक सूत्र पढ़ते हो तो मनोरथ क्यों न करें ? सो सूत्रपाठ यह है. - यतः - तिहिं ठाणेहिं समणे निग्गंथे महाणिज्जरे महापजवसाणे भवइ कयाणं अहं अप्पं वा बहुं वा सुअं अहिजिस्सामि कयाणं अहं एकल्लविहारं पडिमं उवसंपजित्ताणं विहरिस्सामि कयाणं अहं अपच्छिममारणंतियं संलेहणा झूसणा झूसिए भत्तपाण पडिया इक्विए पाओवगमं कालमणवक्कंखेमाणे विहरिस्सामि एवं समणसा सवयसा सकायसा पडिजागरमाणे निग्गंथे महाणिजरे पजवसाणे भवइ। ___ अर्थ - तीन स्थान के श्रमणनिग्रंथ महानिर्जरा और महापर्यवसान करे (वे तीन स्थान कहते हैं) कब मैं अल्प (थोडा) और बहुत श्रुत सिद्धांत पढूंगा ? १, कब मैं एकलविहारी प्रतिमा अंगीकार करके विचरूंगा ? २, और कब मैं अंतिममारणांतिक संलेषणा जो तप उस का सेवन कर के रुक्ष होकर भातपानी का पञ्चक्खाण करके पादपोपगम अनशन करके मृत्यु की वांच्छा नहीं करता हुआ विचरूंगा ? ३, इस तरह साधु मन, वचन, काया तीनों करण करके प्रतिजागरण करता हुआ महा निर्जरा पर्यवसान करे । अब श्रावक के तीन मनोरथों का पाठ कहते हैं। तिहिं ठाणेहिं समणोवासए महाणिजरे महापजवसाणे भवई तंजहा कयाणं अहं अप्पं वा बहु वा परिग्गहं चइस्सामि कयाणं अहं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइस्सामि कयाणं अहं अपच्छिममारणंतियं संलेहणा झूसिय भत्तपाणपडिया इक्खिए पाओवगमं कालमणवक्कंखेमाणे · विहरिस्सामि एवं समणसा सवयसा सकायसा पडिजागरमाणे समणोवासए महाणिजरे महापज्जवसाणे भवई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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