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________________ १७० सम्यक्त्वशल्योद्धार ___अर्थ - तीन स्थान के श्रावक महा निर्जरा महा पर्यवसान करें तद्यथा कब मैं धनधान्यादिक नव प्रकार का परिग्रह थोडा और बहुत त्याग करूंगा ? १, कब मैं मुंड होकर आगार जो गृहवास उस को त्याग के अणगारवास साधुत्व अंगीकार करूंगा ? २, तीसरी संलेषणा का मनोरथ पूर्ववत् जानना । इस से भी ऐसे ही सिद्ध होता है कि श्रावक सूत्र पढे नहीं इत्यादि अनेक दृष्टांतों से खुलासा सिद्ध होता है कि मुनि सिद्धांत पढें और मुनियों को ही पढावे । श्रावकों को तो आवश्यक, दशवैकालिक के चार अध्ययन और प्रकरणादि अनेक ग्रंथ पढ़ने, परंतु श्रावक को सिद्धांत पढने की भगवंत ने आज्ञा नहीं दी है। ॥ इति । |४६. ढूंढिये हिंसाधर्मी हैं इस बाबत : ___इस ग्रंथ को पूर्ण करते हुए मालूम होता है कि जेठे ढूंढक का बनाया समकितसार नामा ग्रंथ गोंडल (सूबा काठियावाड) वाले कोठारी नेमचंद हीराचंद ने छपवाया है। उस में आदि से अंत तक जैनशास्त्रानुसार और जिनाज्ञा मुताबिक वर्तने वाले परंपरागत जैन मुनि तथा श्रावकों को (हिंसाधर्मी) ऐसा उपनाम दिया है । और आप दयाधर्मी बन गये हैं, परंतु शास्त्रानुसार देखने से तथा इन ढूंढियों का आचारव्यवहार, रीतिभांति और चालचलन देखने से खुलासा मालूम होता है कि यह ढूंढिये ही हिंसाधर्मी हैं और दया का यथार्थ स्वरूप नहीं समझते हैं। सामान्य दृष्टि से भी विचार करें तो जैसे गोशाले जमालि प्रमुख कितनेक निन्हवों ने तथा कितनेक अभव्य जीवों ने जितनी स्वरूपदया पाली है उतनी तो किसी ढूंढक से भी नहीं पल सकती है; फक्त मुंह से दया दया पुकारना ही जानते हैं, और जितनी यह स्वरूपदया पालते हैं उतनी भी इन को निन्हवों की तरह जिनाज्ञा के विराधक होने से हिंसा का ही फल देने वाली है। निन्हवों ने तो भगवंत का एक एक ही वचन उत्थाप्या है और उन को शास्त्रकार ने मिथ्यादृष्टि कहा है यत पयमक्खरंपि एक्कपि जो न रोएइ सुत्तनिद्धिठं । से सं रोयंतोवि हु मिच्छदिठी जमालिव्व ।।१।। मूढ़मति ढूंढियों ने तो भगवंत के अनेक वचन उत्थापे है, सूत्र विराधे हैं, सूत्रपाठ- फेर दिये हैं। सूत्रपाठ लोपे हैं, विपरीत अर्थ लिखे हैं, और विपरीत ही करते हैं । इस वास्ते यह तो सर्व निन्हवों में शिरोमणिभूत हैं। अब ढूंढिये दयाधर्मी बनते हैं परंतु वे कैसी दया पालते हैं, गरज दया का नाम लेकर किस किस तरह की हिंसा करते हैं, सो दिखाने वास्ते कितनेक दृष्टांत लिख के वे हिंसाधर्मी हैं, ऐसे सत्यासत्य के निर्णय करने वाले सुज्ञपुरुषों के समक्ष मालूम करते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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