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________________ सम्यक्त्वशल्योद्धार | पांचवें प्रश्नोत्तर में खुलासा लिखा गया है। ॥ इति ॥ |४४. देवता जिनप्रतिमा पूजते हैं सो मोक्ष के वास्ते है इस बाबत : ४४. वें प्रश्नोत्तर में जेठा लिखता है कि "देवता जिनप्रतिमा पूजते हैं सो संसार खाते है" उत्तर - यह लेख मिथ्या है, क्योंकि श्रीरायपरोणीसूत्र में जिनप्रतिमा पूजने के फल का पाठ ऐसा है, यतः हियाए सुहाए खमाए निस्सेयसाए अणुगामित्ताए भविस्सइ ।। अर्थ - जिनप्रतिमा के पूजने का फल पूजने वाले को हित के तक, सुख के तक योग्यता के तक, मोक्ष के तक, और जन्मांतर में भी साथ आने वाला है। _ इस बाबत जेठे ने श्रीआवश्यकनियुक्ति का पाठ लिख के ऐसे दिखलाया है कि "अभव्य देवता भी जिनप्रतिमा को पूजते हैं । इस वास्ते सो संसार खाता है" उत्तर - फल की प्राप्ति भावानुसार होती है। अभव्यमिथ्यादृष्टि जो प्रतिमा पूजते हैं उन को अपने भावानुसार फल मिलता है और भव्यसम्यग्दृष्टि पूजते हैंख उन को मोक्षफल प्राप्त होता है। जैसे जैनमत की दीक्षा अभव्यमिथ्यादृष्टियों को मोक्षदायक नहीं है, और भव्य सम्यग्दृष्टियों को मोक्षदायक है । दोनों को फल जुदा जुदा मिलते हैं । जैसे जैनमत की दीक्षा सञ्ची और मुक्ति का हेतु है, ऐसे ही जिनप्रतिमा भी भक्तजनों को मुक्ति का हेतु है । और उस के निंदक ढूंढकमति वगैरह को नरक का हेतु है अर्थात् जिन पापीजीवों के निंदकता के भाव हैं उनको तो जरूर नरक का फल प्राप्त होता है, और जिन के भक्तित्व के भाव हैं उनको जरूर मोक्षफल प्राप्त होता है । ॥ इति । ४५. श्रावक सूत्र न पढे इस बाबत : ४५. वें प्रश्नोत्तर में "श्रावक सूत्र पढे" इस बात को सिद्ध करने वास्ते जेठे ने कितनीक कुयुक्तियां लिखी हैं । परन्तु उन में से एक भी कुयुक्ति बन नहीं सकती है । उलटा उन्हीं कुयुक्तियों से वह झूठा होता है तो भी "मिया गिर पडा लेकिन टांग ऊंची" इस कहावत के अनुसार जो मन में आया, सो लिख मारा है । और इस से जैसे 'डूबता आदमी झग को हाथ मारे' ऐसे किया है। इस बाबत लिखने को बहुत है । परन्तु ग्रंथ अधिक हो जाने से जेठे की कुयुक्तियों को ध्यान में न लेकर फक्त कितनेक सूत्रों के प्रमाणपूर्वक दृष्टांत लिख के श्रावक को सूत्र पढ़ने का निषेध सिद्ध करते हैं। श्रीभगवतीसूत्र के दूसरे शतक के पांचवें उद्देश में तुंगिया नगरी के श्रावकों के अधिकारमें कहा है, यत - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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