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तो जब गुरु ही नहीं तो अवग्रह कैसे होवे ? इस से सिद्ध होता है कि स्थापनाचार्य विना | जितनी क्रिया ढूंढिये श्रावक तथा साधु करते हैं, सो सर्व शास्त्र विरुद्ध और निष्फल है । श्रावकजन द्रव्य और भाव दोनों की पूजा करते हैं । उन में जिनेश्वर भगवंत की जल, चंदन, कुसुम, धूप, दीप, अक्षत, फल और नैवेद्य आदि से द्रव्यपूजा जिस रीति से करते हैं। उसी रीति से स्थापनाचार्य की भी जल, चंदन, बरास, वासक्षेप आदि से पूजा करते हैं । इस वास्ते जेठे ढूंढक का लिखना कि "स्थापनाचार्य को जल, चंदन, धूप, दीप कुछ भी नहीं करते हैं" सो झूठ है । और साधु मुनिराज जैसे अरिहंत भगवंत की भावपूजा ही करते | हैं वैसे स्थापनाचार्य की भी भावपूजा ही करते हैं। इस वास्ते जेठे की कुयुक्ति वृथा है ।
इस प्रश्नोत्तर के अंत में जेठा लिखता है " सचित्त का संघट्टा देव जो तीर्थंकर उन को कैसे घटेगा ? " । उत्तर जो भावतीर्थंकर हैं उन को सचित्त का संघट्टा नहीं है और स्थापनातीर्थंकर को सचित्त संघट्टा कुछ भी बाधक नहीं है । ऐसे प्रश्नों के लिखने से सिद्ध होता है कि जेठे को चार निक्षेपेका ज्ञान बिलकुल नहीं था ।
॥ इति ॥
| ४१. जिनप्रतिमा जिनसरीखी है
इस बाबत :
इकतालीस वें प्रश्नोत्तर में जेठे हीनपुण्यीने "जिनप्रतिमा जिन सरीखी नहीं" ऐसे | सिद्ध करने वास्ते कितनीक कुयुक्तियां लिखी हैं । परंतु सो सर्व मिथ्या है; क्योंकि सूत्रो में बहुत ठिकाने जिनप्रतिमा को जिनसरीखी कहा है । जहाँ दो भाव तीर्थंकर को | वंदना नमस्कार करने वास्ते आने का अधिकार है वहां वहां "देवयं चेइयं पज्जुवासामि" | अर्थात् देव संबंधी चैत्य जो जिनप्रतिमा उसकी तरह पर्युपासना करूंगा ऐसे कहा है । | तथा श्रीरायपसेणी सूत्र में कहा है "धूवं दाऊण जिनवराणं" यह पाठ सूर्याभ देवताने जिन - प्रतिमा पूजी तब धूप किया उस वक्त का है, और इस में कहा है कि जिनेश्वर को धूप किया और इस पाठ में जिनप्रतिमा को जिनवर कहा । इस से तथा पूर्वोक्त | दृष्टांत से जिनप्रतिमा जिनसरीखी सिद्ध होती है । इस वास्ते इस बात के निषेधने को जेठे मूढमति ने जो आलजाल लिखा है सो सर्व झूठ और स्वकपोलकल्पित है ।
जेठा लिखता है कि "प्रभु जल, पुष्प, धूप, दीप, वस्त्र, भूषण वगैरह के भोगी नहीं थे और तुम भोगी ठहराते हो" । उत्तर यह लेख अज्ञानता का है, क्योंकि प्रभु गृहस्थावस्था में तो सर्व वस्तु के भोगी थे । इस मुताबिक श्रावकवर्ग जन्मावस्थाका | आरोप करके स्नान कराते हैं, पुष्प चढाते हैं, यौवनावस्था को आरोप के अलंकार पहनाते हैं, और दीक्षावस्था का आरोप करके नमस्कार करते है, इस वास्ते अरिहंत | देव भोगी अवस्था में भोगी हैं, और त्यागी अवस्था में त्यागी हैं, भोगी नहीं । परंतु भोगी तथा त्यागी दोनों अवस्थाओं में तीर्थंकरत्व तो है ही, और उस से तीर्थंकरदेव गर्भ से लेकर निर्वाण पर्यंत पूजनीय ही हैं । इस वास्ते जेठे के लिखे दूषण जिनप्रतिमा
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