SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५८ सम्यक्त्वशल्योद्धार थी। क्योंकि उस सोमिल ने कृष्णजी को देखते ही काल किया है । तो भी देखो. कि कृष्णजी ने उस के मृतक (मुरदे) को जमीन ऊपर घसीटा है, और उस की बहुत निंदा की है और उस मृतक को जितनी भूमि पर घसीटा उतनी जमीन उस महादुष्ट के स्पर्श से अशुद्ध हुई मान के उस पर पानी छिडकाया है ऐसा श्रीअंतगडदशांगसूत्र में कहा है। इस वास्ते विचार करो कि मृत्यु हुए बाद भी इस तरह की बिटंबना की है तो जीता होता तो कृष्णजी उस की कितनी विटंबना करते ! इस वास्ते प्रवचन के प्रत्यनीक को शिक्षा करनी शास्त्रोक्त रीति से सिद्धि है, विशेष कर के तीस वें प्रश्नोत्तर में लिखा है। ॥ इति । ४०. देवगुरु की यथायोग्य भक्ति करने बाबत : चालीसवें प्रश्नोत्तर में जेठा लिखता है कि "जैनधर्मी गुरु महाव्रती और देव अव्रती मानते हैं"। उत्तर-यह लेख लिख के जेठे ने जैनधर्मियों को झूठा कलंक दिया है, क्योंकि ऐसी श्रद्धा किसी भी जैनी की नहीं है । जेठा इस बात में भक्ति की भिन्नता को कारण बताता है परंतु जैनी जिस रीति से जिस की भक्ति करनी उचित है उस रीति से उस की भक्ति करते है । देवकी भक्ति जल, कुसुम से करनी उचित है, और गुरु की भक्ति वंदना नमस्कार से करनी उचित है । सो उसी रीति से श्रावकजन करते हैं । अक्ष की स्थापना का निषेध करने वास्ते जेठेने अक्ष को हाड लिख के स्थापनाचाय की अवज्ञा, निंदा तथा आशातना की है । सो उस की मूर्खता है । क्योंकि आवश्यक करते समय अक्ष के स्थापनाचार्य की स्थापना करनी श्रीअनुयोगद्वारसूत्र के मूल पाठ में कहा है कि "अक्खे वा" इत्यादि "ठवण ठविजइ" अर्थात् अक्षादि की स्थापना स्थापनी । सो उस मुताबिक अक्ष की स्थापना करते हैं, तथा श्री विशेषावश्यक सूत्र में लिखा है कि "गुरु विरहम्मि य ठवणा" अर्थात् गुरु प्रत्यक्ष न हो तो गुरु की स्थापना करनी और उस को द्वादशावर्त वंदना करनी । जेठे ने स्थापनाचार्य को हाड कह कर अशातना की| है। हम पूछते भी है कि ढूंढिये अपने गुरु को वंदना नमस्कार करते हैं । उस का शरीर तो हाड, मास, रुधिर, तथा विष्टा से भरा हुआ होता है तो उस को वंदना नमस्कार क्यों करते हैं ? इस वास्ते प्यारे ढूंढियों ! विचार करो, और ऐसे कुमतियों की जाल में फंसना छोड़ के सत्यमार्ग को अंगीकार करो। ढूंढिये शास्त्रोक्त विधि अनुसार स्थापनाचार्य स्थापे विना प्रतिक्रमणादि क्रिया करते हैं। उन को हम पूछते हैं कि जब उन को प्रत्यक्ष गुरु का विरह होता है, तब वह पडिक्कमणे में वंदना किस को करते हैं ? तथा "अहोकायं काय संफासं" इस पाठ से गुरु की अधोकाया चरणरूप को स्पर्श करना है, सो जब गुरु ही नहीं तो अधोकाया कहां से आई ? तथा जब गुरु नहीं तो ढूंढिये वंदना करते हैं तब किस के साथ मस्तकपात करते हैं ? और गुरु के अवग्रह रो बाहिर निकलते हुए "आनस्सही" कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy