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________________ सम्यक्त्वशल्योद्धार को नहीं लगते हैं । तथा ढूंढियों को हम पूछते हैं कि समवसरण में जब तीर्थंकर भगवंत विराजते थे तब रत्नजडित सिंहासन पर बैठते थे, चामर होते थे, सिर पर तीन छत्र थे, इत्यादि कितनीक संपदा थी, तो वह अवस्था त्यागी की हैं कि भोगी की ? जो त्यागी है तो चामरादि क्यों ? और भोगी हैं तो त्यागी क्यों कहते हो ? इस में समझने का तो यही है कि भगवंत तो त्यागी ही हैं, परंतु भक्तिभाव से चामरादि करते हैं । ऐसे ही जिनप्रतिमा की भी भक्तजन पूजा करते हैं । तो उस को देख के ढूंढियों के हृदय में त्यागी भोगी का शूल क्यों उठता है ? जेठा लिखता है कि "भगवंत को त्यागी हुई वस्तु का तुम भोग कराते हो तो उस में पाप लगता है" तथा इस बाबत अनाथी मुनि का दृष्टांत लिखा है । परंतु उस दृष्टांत का जिनप्रतिमा के साथ कुछ भी संबंध नहीं है। क्योंकि जिनप्रतिमा है सो स्थापनातीर्थंकर है । उस को भोगने न भोगने से कुछ भी नहीं हैं । फक्त करने वाले की भक्ति है । त्यागी हुई वस्तु नहीं भोगनी सो तो भावतीर्थंकर आश्री बात है । इस वास्ते यह बात वहाँ लिखने की कुछ भी जरूरत नहीं थी। तो भी जेठे ने लिखी है सो वृथा है । वस्त्र बाबत जेठे ने इस प्रश्नोत्तर में फिर लिखा है, सो इस का प्रत्युत्तर द्रौपदी के अधिकार में लिखा गया है । इस वास्ते यहां नहीं लिखते हैं। जेठे ने लिखा है कि "जिनप्रतिमा जिनसरीखी है, तो भरत ऐरावत में पांचवें आरे तीर्थंकर का विरह क्यों कहा है ?" उत्तर - यह लेख भी जेठे की बेसमझी का है, क्योंकि विरह जो कहाता है सो भावतीर्थकर आश्री है । जेठा ढूंढक लिखता है कि "एक क्षेत्र में दो इकट्ठे नहीं होवे, होवे तो अच्छेरा कहा जावे । और तुम तो बहुत तीर्थंकरों की प्रतिमा एकत्र करते हो"। उत्तर - मूर्ख जेठे को इतनी भी समझ नहीं थी कि दो तीर्थंकर इकट्ठे नहीं होने की बात तो भावतीर्थकर आश्री है और हम जो जिन प्रतिमा इकट्ठी स्थापते हैं सो स्थापनातीर्थकर है, जैसे सर्व तीर्थंकर निर्वाणपद को पाकर सिद्ध होते हैं तब वे द्रव्य तीर्थकर होते हुए अनंत इकट्ठे होते हैं । वैसे स्थापनातीर्थकर भी इकठे स्थापे जाते हैं । तथा सिद्धायतन का विस्तार से अधिकार | श्रीजीवाभिगमसत्र में कहा है। वहां भी एक सिद्धायतन में एक सौ आठ f 3 जिनप्रतिमा प्रकटतया कही हैं । इस वास्ते जेठे का लिखा यह प्रश्न बिलकुल असत्य है । यदि स्थापना से भी इकट्ठा होना न हो तो जंबूद्वीप में (२६९) पर्वत न्यारे न्यारे (जुदे जुदे) ठिकाने हैं । उन सब को मांडले में एकत्र करके अरे ढूंढियों ! पोथी में क्यों बांधी फिरते हो ? तथा वह चित्राम लोगों को दिखाते हो, समझाते हो, और लोग समझते भी हैं । तो वे पर्वत जुदे जुदे हैं और शाश्वती वस्तुओं के एकत्र होने का अभाव है तो तुम इकट्ठे क्यों करते हो सो बताओ ? जेठा लिखता है कि "तीर्थंकर जहां विचरे वहां मरी |और स्वचक्र-परचक्र का भय न होवे तो जिनप्रतिमा के होते हुए भय क्यों होता है ? " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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