________________
१४३
झूठी है, और जैनशास्त्रानुसार बीस विहरमान के नाम कहलाते हैं सो सच्चे हैं । यदि जेठा हाल में कहलाते बीस नाम सच्चे नहीं मानता है तो कौन से बीस नाम सच्चे हैं ? और वे क्यों नहीं लिखे ? बेचारा कहां से लिखे ? फक्त जिनप्रतिमा के द्वेष से ही सर्व शास्त्र उत्थापे उन में विरहमान की बात भी गई तो अब लिखे कहां से ? जब बोलने का कोई ठिकाना न रहा तो सच्चे नाम को खोटे ठहराने के वास्ते धुयें की मुठ्ठियां भरी हैं । परंतु इस से उसके झूठे पंथ की कुछ सिद्धि नहीं हुई हैं, और होने की भी नहीं है।
तथा ढंढिये बत्तीस सत्रों में जो बात नहीं है सो तो मानते ही नहीं हैं। तो यह बात भी उन को माननी न चाहिये। मतलब यह कि बीस विरहमान भी नहीं मानने चाहिये । परंतु उलटे कितनेक ढूंढिये बीस विरहमान की स्तुति करते हैं, युग्म (काव्य) बनाते हैं, परंतु किस के आधार से बनाते हैं इसके जवाब में उन के पास कुछ भी साधन नहीं है। ___ अंत में जेठमल ने लिखा है कि "इस बात में हमारा कुछ भी पक्षपात नहीं है" यह लेख उस ने ऐसा लिखा है कि जब कोई हथियार हाथ में नहीं रहा, दोनों हाथ नीचे पड गये तब शरण आने वास्ते जी जी करता है परंतु यह उस ने मायाजाल का फंद रचा है। ३२. चैत्यशब्द का अर्थ साधु तथा ज्ञान नहीं इस बाबत : बत्तीसवें प्रश्नोत्तर की आदि में चैत्य शब्द का अर्थ साधु ठहराने वास्ते जेठमलने
बोल लिखे हैं सो सर्व झठे हैं। क्योंकि चैत्य शब्द का अर्थ सत्रों में किसी ठिकाने भी साधु नहीं कहा हैं । चौबीस ही बोलों में जेठे ने चैत्य शब्द का अर्थ "देवयं चेइयं" इस पाठ के अर्थ में साधु और अरिहंत ऐसा किया है, परंतु ये दोनों ही अर्थ खोटे हैं। किसी भी सूत्र की टीका में अथवा टब्बे में ऐसा अर्थ नहीं किया है। उस का अर्थ तो इष्टदेव जो अरिहंत उस की प्रतिमा की तरह "पजुवासामि" अर्थात् सेवा करूं ऐसा किया है। परंतु कितनेक ढूंढियों ने हडताल से मेट के नवीन कितनेक पुस्तकों में जो मन माना सो अर्थ लिख दिया है, इस वास्ते वह मानने योग्य नहीं है।
किसी कोष में भी चैत्य शब्द का अर्थ साधु नहीं किया है और तीर्थंकर भी नहीं किया है । कोष में तो "चैत्यं जिनौकस्तविंबं चैत्यो जिनसभातरु"१ अर्थात् जिनमंदिर और जिनप्रतिमा को 'चैत्य" कहा है और चौतरेबन्ध वृक्ष का नाम 'चैत्य' कहा है। इन के उपरांत और किसी वस्तु का नाम चैत्य नहीं कहा है । तथा तेइसवें और चौबीस में बोल में आनंद तथा अंबड का अधिकार फिरा कर लिखा है । उस बाबत सोलहवें तथा सत्रहवें नश्न में हम लिन आए हैं । ढूंढिये चैत्य शब्द का अर्थ साधु कहते हैं परंतु सूत्र में तो किसी ठिकाने भी साधु को चैत्य कह कर नहीं बुलाया है । "निग्गंथाण वा निग्गथिण वा" ऐसे कहा है, "साहु वा साहुणी वा" ऐसे कहा है, और "भिक्खु १ अभिधान चिंतामणि - कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचायजी कृत
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org