SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यक्त्वशल्योद्धार वा भिक्खुणी वा" ऐसे भी कहा है, परंतु "चैत्यं वा चैत्यानि वा" ऐसे तो एक ठिकाने भी नहीं लिखा है । तथा यदि चैत्य शब्द का अर्थ साधु हो तो सो चैत्य शब्द स्त्रीलिंग में तो बोला ही नहीं जाता है तो साध्वी को क्या कहना ? १४४ तथा श्रीमहावीरस्वामी के चौदह हजार साधु सूत्र में कहे हैं परंतु चौदह हजार चैत्य नहीं कहे । श्रीऋषभदेवस्वामी के चौरासी हजार साधु कहे परंतु चौरासी हजार चैत्य नहीं | कहे । केशीगणधर का पांच सौ साधु का परिवार कहा परंतु चैत्य का परिवार नहीं कहा। इसी तरह सूत्रों में अनेक ठिकाने आचार्य के साथ इतने साधु विचरते हैं ऐसे तो कहा है | परंतु किसी ठिकाने इतने चैत्य विचरते हैं ऐसे नहीं कहा है। फक्त ढूंढिये स्वमतिकल्पना से ही चैत्य शब्द का अर्थ साधु करते हैं परंतु सो झूठा है । 1 और जेठे ने जिस जिस बोल में चैत्य शब्द का अर्थ साधु किया है सो अर्थ फक्त शब्द से यथार्थ अर्थ जानने वाले पुरुष देखेंगे तो मालूम हो जावेगा कि उसका किया। अर्थ विभक्ति सहित वाक्ययोजना में किसी रीति से भी नहीं मिलता है । तथा जब सर्वत्र "देवयं चेइयं" का अर्थ साधु अथवा तीर्थंकर ठहराता है तो श्रीभगवतीसूत्र में | दाढा के अधिकार में भगवंतने गौतमस्वामी को कहा कि जिन दाढा देवता को पूजने | योग्य हैं यावत् "देवयं चेइयं पज्जुवासामि ऐसा पाठ है उस ठिकाने ढूंढिये "चेइय" शब्द का क्या अर्थ करेंगे; यदि 'साधु अर्थ करेंगे तो यह उपमा दाढा के साथ अघटित है और यदि 'तीर्थंकर ऐसा अर्थ करेंगे तो दाढा तीर्थंकर समान सेवा करने योग्य होगी । जो कि दाढा तीर्थकर की होने से उन के समान सेवा के लायक है तथापि उस | ठिकाने तो दाठा जिन प्रतिमा के समान सेवा करने योग्य कही हैं । इस वास्ते 'चेइयं' शब्द का अर्थ पूर्वोक्त हमारे कथन मुताबिक सत्य है । क्योंकि पूर्वाचार्यों ने यही अर्थ किया है । २५ से २९ तक पांच बोलों में चैत्य शब्द का अर्थ ज्ञान ठहराने वास्ते जेठमल ने कुयुक्तियां की हैं । परंतु सो मिथ्या हैं, क्योंकि सूत्र में ज्ञान को चैत्य नहीं कहा है । श्रीनंदिसूत्रादि जिस जिस सूत्र में ज्ञान का अधिकार है वहां सर्वत्र ज्ञानार्थ वाचक "नाण" शब्द लिखा है। जैसे "नाणं पंचविहं पण्णत्तं ऐसे कहा है परंतु "चेइय पंचविहं पण्णत्त" ऐसे नहीं कहा है। तथा सूत्रों में जहां जहां ज्ञानी मुनिमहाराजा का अधिकार है वहां वहां "मइनाणी, सुअनाणी, ओहीनाणी, मणपजवणाणी, केवलनाणी" ऐसे कहा है । परंतु एक ठिकाने भी "मइचैत्यी, सुअचैत्यी, ओहीचैत्यी, मणपजवचैत्यी, केवलचैत्यी" ऐसे नहीं कहा है । तथा जहां जहां भगवंत को तथा साधुओं को अवधिज्ञान, मनपर्य्यवज्ञान, परमावधिज्ञान, तथा केवलज्ञान उत्पन्न होने का अधिकार है, वहां वहां ज्ञान उत्पन्न हुआ ऐसे तो कहा है। परंतु अवधि चैत्य उत्पन्न हुआ, मनपर्यत्र चैत्य उत्पन्न हुआ, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy