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३०. शासन के प्रत्यनीक को शिक्षा देनी इस बाबत :
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तीसवें प्रश्नोत्तर में जेठमल ने लिखा है कि "धर्मअपराधी को मारने से लाभ है। ऐसा जैनधर्मी कहते हैं" । जेठे का यह लेख मिथ्या है । क्योंकि जैनमत के किसी भी | शास्त्र में ऐसे नहीं लिखा है कि धर्मअपराधी को मारने से लाभ है । परंतु जैनशास्त्र में ऐसे तो लिखा है कि जो दुष्ट पुरुष जिनशासन का उच्छेद करने वास्ते, जिनप्रतिमा तथा जिनमंदिर के खंडन करने वास्ते मुनिमहाराज के घात करने वास्ते तथा साध्वी के शीलभंग करने वास्ते उद्यत हो, उस अनुचित काम करने वाले को प्रथम तो साधु | उपदेश देकर शांत करे, यदि वह पुरुष लोभी हो तो उस को श्रावकजन धन देकर हटावे, जब किसी तरह भी न माने तो जिस तरह उसका निवारण हो उसी तरह करे । | जो कहा है श्रीवीरजिनहस्तदीक्षित धर्मदास गणिकृत ग्रंथ में - तथा हि
साहूण चेइयाणय पडिणीयं तह अवण्णवायं च
जिण पवयणस्स अहियं सव्वत्थामेण वारेइ ।। २४१ ||
और गुर्वादि के अपराधि का निवारण करना सो वैयावच्च है, सो श्रीउत्तराध्ययनसूत्र में श्रीहरिकेशी मुनि ने कहा है तथाहि पुव्विं च इण्हिं च अणागयं च मणप्पदोसो न मे अत्थि कोई । जक्खा हु वेयावडियं करेंति तम्हा हु एए निहया कुमारा ।। ३१ ।। इस काव्य के तीसरे तथा चौथे पाद में हरिकेशीमुनि ने कहा है कि यक्ष मेरी वेयावच्च करता है, उस ने मेरी वेयावच्च के वास्ते कुमारों को हना है 1
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इस बाबत जेठमल लिखता है कि "हरिकेशीमुनि छद्मस्थ चार भाषा का बोलने। वाला था। उसका वचन प्रमाण नहीं ऐसे वचन पुण्यहीन मिथ्यादृष्टि के विना अन्य कौन लिखे या बोले ? बडा आश्चर्य है कि सूत्रकार जिस की महिमा और गुणवर्णन करते हैं, जिन को पांच समिति और तीन गुप्ति सहित लिखते हैं, ऐसे महामुनि का वचन प्रमाण नहीं ऐसे जेठा लिखता है ! परंतु ऐसे लेख से जेठमल कुमति का वचन किसी भी मार्गानुसारी को मान्य करने योग्य नहीं है ऐसे सिद्ध होता है ।
जेठमल लिखता है कि "गुरु को बाधाकारी जू, लीख, मागणु आदि बहुत सूक्ष्म | जीव भी होते हैं तो उन का भी निराकरण करना चाहिये" उत्तर-बेअकल जेठे का यह लिखना मिथ्या है, क्योंकि वह जीव कुछ द्वेषबुद्धि से साधु को अशाता पैदा नहीं करते हैं, परंतु उनका जातिस्वभाव ही ऐसा है, और इस से गुरुमहाराज को कुछ | विशेष अशाता होने का भी सभव नहीं है । इस वास्ते इन के निवारण की भी कुछ जरूरत नहीं है। परंतु पूर्वोक्त दुष्ट पुरुषों के निवारण की तो अवश्य जरूरत है ।
जेठमल सरीखे बअकल रिखों के ऐसे लेख तथा उपदेश से यह तो निश्चय होता है
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