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________________ १४० २९. स्थापना निक्षेपा वंदनीय है इस बाबत : २९ वे प्रश्नोत्तर में जेठमलने स्थापना निक्षेपा वंदनीय नहीं, ऐसे सिद्ध करने वास्ते कितनीक मिथ्या कुयुक्तियां लिखी हैं । आद्य में श्रीदशवैकालिकसूत्र की गाथा लिखी है परंतु उस गाथा से तो स्थापना | निक्षेपा अच्छी तरह सिद्ध होता है, यत संघट्टइत्ता काएणं अहवा उवहिणामवि । खमेह अवराहं मे वएज न पुणोत्तिय ।।१८।। अर्थ- काया से संघट्टा हो तथा उपधि का संघट्ठा हो तो शिष्य कहे मेरा अपराध क्षमो और दूसरी बार संघट्टादि अपराध नहीं करूंगा ऐसे कहे । इस गाथा के अर्थ से प्रकट सिद्ध होता है कि गुरु के वस्त्रादि तथा पाटादिक के संघट्टे करने से पाप । यहां यद्यपि पाटादिक अजीव है तो भी यह आचार्य के हैं । इस वास्ते इन की आशातना टालनी इससे स्थापना निक्षेपा सिद्ध होता है । इस वास्ते | जेठमल की कल्पना मिथ्या है । क्योंकि जिनप्रतिमा जिनवर अर्थात् तीर्थंकर की कहाती है, और वस्त्रादि उपधि गुरु महाराज की कही जाती है । इस वास्ते इन दोनों की जो भक्ति करनी सो देवगुरु की ही भक्ति है, और इन की जो आशातना करनी सो | देवगुरु की आशातना है। इस से स्थापना माननी तथा पूजनी सत्य सिद्ध होती है । जेठमल लिखता है कि "उपकरण प्रयोग परिणम्या द्रव्य है" सो महामिथ्या है । उपकरण का प्रयोग परिणम्या पुद्गल किसी भी जैनशास्त्र में नहीं कहा है, परंतु उस को तो मीसा पुद्गल कहा है। इस वास्ते मालूम होता हे कि जेठमल को जैनशास्त्र की कुछ भी खबर नहीं थी । और जेठमल लिखता है कि "जिस पृथ्वी शिलापट्ट ऊपर बैठ के भगवंतने उपदेश किया है उसी शिलापट्ट ऊपर बैठ के गौतम सुधर्मास्वामी प्रमुख ने उपदेश किया है" उत्तर ऐसा कथन किसी भी जैनसिद्धांत में नहीं है । इस | वास्ते जेठमल ढूंढक महामृपावादी सिद्ध होता है । सम्यक्त्वशल्योद्धार जेठमल गुरु के चरण बाबत कुयुक्ति लिखके अपना मत सिद्ध करना चाहता है, परंतु सो मिथ्या है । क्योंकि गुरु के चरण की रज भी पूजने योग्य है तो धरती ऊपर |पडे गुरु के चरणों का तो क्या ही कहना ? कितनेक ढूंढिये अपने गुरु के चरणोंकी रज मस्तकों पर चढाते हैं, और जेठा तो उनके साथ भी नहीं मिलता है । तो इस से यही सिद्ध होता है कि यह कोई महादुर्भवी था । इस प्रश्नोत्तर के अंत में कितनेक अनुचित वचन लिख के जेठे ने गुरुमहाराज की आशातना की है, सो उस ने ससारसमुद्र में रुलने का एक अधिक साधन पैदा किया है। बारहवें प्रश्नोत्तर में इस बाबत विशेष खुलासा करके स्थापना निक्षेपा वंदनीय सिद्ध कीया है । इस वास्ते यहां अधिक नहीं लिखते हैं । ।। इति ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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