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________________ सम्यक्त्वशल्योद्धार | आदि नगरों में तथा शत्रुंजय, गिरनारादि तीर्थों में बहुत ठिकाने संप्रति राजा के बनवाए जिनमंदिर दृष्टिगोचर होते हैं । और भी अनेक जिनमंदिर हजारों वर्षों के बने हुए दिखलाई देते हैं, तथा आबूजी ऊपर विमलचंद्र तथा वस्तुपाल तेजपाल के बनवाए क्रोडों रूपैये की लागत के जिनमंदिर जिन की शोभा अवर्णनीय है यद्यपि विद्यमान हैं। | तो भी मंदमति जेठमल ढूंढकने लिखा है कि "किसी श्रावक ने जिनप्रतिमा पूजी नहीं है"। तो इस से यही मालूम होता है कि उस के हृदयचक्षु तो नहीं थे परंतु द्रव्य का भी | अभाव ही था ! क्योंकि इसी कारण से उस ने पूर्वोक्त सूत्रपाठ अपनी दृष्टि से देखे नहीं होंगे । ।। इति ।। १३६ | २७. सावद्यकरणी बाबत : सत्ताइसवें प्रश्नोत्तर में जेठमल लिखता है कि "सावद्यकरणी में जिनाज्ञा नहीं है" । यह लिखाण एकांत होने से जेठमल ने अज्ञानता के कारण किया हो ऐसे मालूम होता है। क्योंकि सावद्य निरवद्य की उस को खबर ही नहीं थी । ऐसे उस के इस प्रश्नोत्तर में लिखे २४ बोलों से सिद्ध होता है । जेठमल जिस २ कार्य में हिंसा होती हो उन सर्व | कार्यों को सावद्यकरणी में गिनता है परंतु सो झूठ है । क्योंकि जिनपूजादि कुछ कार्यों में स्वरूप से तो हिंसा है परंतु जिनाज्ञानुसार होने से अनुबंधे दया ही है । परंतु अभव्य, जमालिमती और ढूंढिये आदि जो दया पालते हैं, सो स्वरूपे दया है परंतु जिनाज्ञा बाहिर होने से अनुबंधे तो हिंसा ही है । इस वास्ते कुछ धर्मकार्यो में स्वरूपे हिंसा और अनुबंधे दया है और उस का फल भी दया का ही होता है तथा ऐसे कार्य में जिनेश्वर भगवंतने आज्ञा भी दी है। जिन में से कितनेक बोल दृष्टांत तरीके लिखते हैं । १. श्रीआचारांगसूत्र के दूसरे श्रुतस्कंध के ईर्या अध्ययन में लिखा है कि साधु खाडे में पड़ जावे तो घांस वेलडी तथा वृक्ष को पकड़ कर बाहिर निकल आवे । २. इसी सूत्र में लिखा है कि साधु खंड शर्करा के बदल लूण ले आया हो तो वह खा जावे, अपने आप न खाया जावे तो सांभोगिक को बांट दे । ३. इसी सूत्र में लिखा है कि मार्ग में नदी आवे तो साधु इस तरह उतरे । ४. इसी सूत्र में कहा है कि साधु मृगपृच्छामें झूठ बोले । ५. श्रीसूयगडांगसूत्र के नव | झूठ न बोले, अर्थात् मृगपृच्छा में बोले । अध्ययन में कहा है कि मृगपृच्छा के बिना साधु ६. श्रीठाणांगसूत्र के पांचवें ठाणे में पांच कारणे साधु साध्वी को पकड लेवे ऐसे कहा है। उन में नदी में बहती साध्वी को साधु बाहिर निकाले ऐसे कहा है । ७. श्रीभगवतीसूत्र में कहा है कि श्रावक साधुको असूझता और सचित चार प्रकार का आहार देवे तो अल्प पाप और बहत निर्जरा करे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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