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________________ १३७ ८. श्रीउववाइसूत्र में कहा है कि साधु शिष्य की परीक्षा वास्ते दोष लगावे । ९. श्रीउत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि साधु पडिलेहणा करे उस में अवश्य वायुकाय की हिंसा होती है। १०. श्रीबृहत्कल्पसूत्र में चरबी का लेप करना कहा है। ११. इसी सूत्र में कारणे साध्वी को पकडना कहा है । इत्यादि कितने ही कार्य जिन को एकांत पक्षी होने से जेठमल ढूंढक सावध गिनता है परंतु इनमें भगवंत की आज्ञा है । इस वास्ते कर्म का बंधन नहीं है ।। श्रीआचारांगसूत्र के चौथे अध्ययन के दूसरे उद्देश में कहा है कि देखने में आश्रव का कारण है परंतु शुद्ध परिणाम से निर्जरा होती है, और देखने में संवर का कारण है परंतु अशुद्ध परिणाम से कर्म का बंधन होता है । तथा सम्यग्दृष्टि श्रावकों ने पुण्यप्राप्ति के निमित्त कितनेक कार्य किये हैं, जिन में स्वरूपे हिंसा है परंतु अनुबंधे दया है, और उन को फल भी दया का ही प्राप्त हुआ है। ऐसे अधिकारसूत्रों में बहुत हैं जिन में से कुछ के अधिकार लिखते हैं। १. श्रीज्ञातासूत्र में कहा है कि सुबुद्धि प्रधान ने राजा के समझाने वास्ते गंदी | खाई का पानी शुद्ध किया । । २. श्रीमल्लिनाथजीने ६ राजा के प्रतिबोध ने वास्ते मोहनघर कराया । ३. उन्हों ने ही ६ राजाओं का अपने ऊपर का मोह हटाने वास्ते अपने स्वरूप जैसी पुतली में प्रतिदिन आहार के ग्रास गिरे जिससे उन में हजारों त्रस जीवों की उत्पत्ति और विनाश हुआ । ४. उववाइसूत्र में कोणिक राजा ने भगवान् की भक्ति वास्ते बहुत आडंबर किया। ५. कोणिक राजा ने रोज भगवंत की खबर मंगवाने वास्ते आदमियों की डाक बांधी। ६. प्रदेशी राजा ने दानशाला मंडाई । जिस में कई प्रकार का आरंभ था । परंतु केशीकुमार ने उसका निषेध नहीं किया, किंतु कहा कि हे राजन् ! पूर्व मनोज्ञ हो के अब अमनोज्ञ नहीं होना। ७. प्रदेशी राजा ने केशीगणधर को कहा कि हे स्वामिन् ! कल को मैं समग्र अपनी ऋद्धि और आडंबर के साथ आकर आपको वंदना करुंगा, और वैसे ही किया, परंतु केशीगणधर ने निषेध नहीं किया। ८. चित्रसारथी ने प्रदेशी राजा को प्रतिबोध कराने वास्ते श्रीकेशीगणधर के पास ले जाने वास्ते रथघोडे दौडाये । ९. सूर्याभ देवता ने जिनभक्ति के वास्ते भगवंत के समीप नाटक किया। १०. द्रौपदी ने जिनप्रतिमा की सत्रह भेदी पूजा की । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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