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________________ ११० सम्यक्त्वशल्योद्धार २३. जिनमंदिर कराने से तथा जिनप्रतिमा भराने से बारमें देवलोक जावे इस बाबत : श्रीमहानिशीथसूत्र में कहा है कि जिनमंदिर बनवाने से सम्यग्दष्टि श्रावक यावत् बारमें देवलोक तक जावे-यतः काउंपि जिणाययणेहिं मंडिअं सव्वमेयणीवटें दाणाइचउक्केणं सढ्ढो गच्छेज अञ्चुअं जाव । इस को असत्य ठहराने वास्ते जेठमल ने लिखा है कि "जिनमंदिर जिनप्रतिमा करावे सो मंदबुद्धिया दक्षिण दिशा का नारकी होगा ।" उत्तर-यह लिखना महामिथ्या है । क्योंकि ऐसा पाठ जैनमत के किसी भी शास्त्र में नहीं है । तथापि जेठमल ने उत्सूत्र लिखते हुए जरा भी विचार नहीं किया है। यदि जेठमल ढूंढक वर्तमान समय में होता तो पंडितों की सभा में चर्चा कर के उसका मुंह काला करा के उस के मुख में जरूर शक्कर देते ! क्योंकि झूठ लिखने वाले को यही दंड होना चाहिये। राज्ञः प्राभूतानि निवेदितवान् संमानितश्च राज्ञा आईक प्रहितानि प्राभूतानि चाभयकुमाराय दत्तवान् कथितानि स्नेहोत्पादकानि वचनानि अभयेनाचिंति नूनमसौ भव्यःस्यादासन्नसिद्धिको यो मया सार्द्ध प्रीतिमिच्छतीति ततोऽभयेन प्रथम जिनप्रतिमा बहप्राभतयुताऽऽर्द्रककुमाराय प्रहिता इदं प्राभूतमेकाते निरूपणीयमित्युक्त जनस्य सोप्याईकपुरं गत्वा यथोक्तं कथयित्वा प्राभृतमार्पयत् प्रतिमा निरूपयतः कुमारस्य जातिस्मरणमुत्पन्न धर्मे प्रतिबुद्धं मनः अभयं स्मरन् वैराग्यात्कामभोगेष्वनासक्तस्तिष्ठति पित्रा ज्ञातं मा क्वचिदसौ यायादिति पंचशतसुभटैर्नित्यं रक्ष्यते इत्यादि ।। भावार्थः- एक दिन आर्द्रकुमार के पिता ने दूत के हाथ राजगृह नगरी में श्रेणिक राजा को प्राभृत (नजर-तोसा) भेजा, आर्द्रकुमारने श्रेणिक राजा के पुत्र अभयकुमार के प्रति स्नेह करने वास्ते उसी दूत के हाथ प्राभृत भेजा । दूतने राजगृह में जा कर श्रेणिक राजा को भेंट दिये। राजा ने भी दूत का यथायोग्य सन्मान किया । और आर्द्रकुमार के भेजे प्राभत अभयकुमार को दिये तथा स्नेह पैदा करने के वचन कहे, तब अभयकुमार ने सोचा कि निश्चय यह भव्य है । निकट मोक्षगामी है । जो मेरे साथ प्रीति इच्छता है । तब अभयकुमारने बहुत प्राभृत सहित प्रथमजिन श्रीऋषभदेव स्वामी की प्रतिमा आर्द्रकुमार के प्रति भेजी और दूत को कहा कि यह प्राभृत आर्द्रकुमार को एकांत में दिखाना । दूत ने आर्द्रकपुर में जा के यथोक्त कथन कर के प्राभूत दे दिया। प्रतिमा को देखते हुए आर्द्रकुमार को जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हुआ । धर्म में मन प्रतिबोध हुआ; आर्द्रकुमार को याद करता हुआ वैराग्य से कामभोगों में आसक्त नहीं होता हुआ आर्द्रकुमार रहता है अभय । पिता ने जाना न कहीं यह यह कहीं चला जावे इस वास्ते पांच सौ सुमटों से पिता हमेशां उसकी रक्षा करता है इत्यादि ।। यह कथन श्रीसूयगडांगसूत्र के दूसरे श्रुतस्कंध के छठे अध्ययन में है । ढूंढिये इस ठिकाने कहते हैं कि अभयकुमार ने आर्द्रकुमार को प्रतिमा नहीं भेजी है । मुहपत्ती भेजी है तो हम पूछते हैं कि यह पाठ किस ढूंढक पुराण में है ? क्योंकि जैनमत के किसी भी शास्त्र में ऐसा कथन नहीं है । जैनमत के शास्त्रों में तो पूर्वोक्त श्रीऋषभदेव स्वामी की प्रतिमा भेजने का ही अधिकार है ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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