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देख के दृष्टि मोड़ लेनी । जिस तरह चित्राम की मूर्ति देखने से विकार उत्पन्न होता है ।। इसी तरह जिनप्रतिमा के दर्शन करने से वैराग्य उत्पन्न होता है । क्योंकि जिन बिंबनिर्विकार का हेतु है । इस ऊपर जेठमल ढूंढक श्रीप्रश्नव्याकरण का पाठ लिख के उस के अर्थ में लिखता है कि "जिन मूर्ति भी देखनी नहीं कही है" परंतु यह उस का लिखना मिथ्या है, क्योंकि श्रीप्रश्नव्याकरण में जिनप्रतिमा देखने का निषेध नहीं है, किंतु जिस मूर्ति के देखने से विकार उत्पन्न हो उस के देखने का निषेध है, पूर्वोक्त सूत्रार्थ में जेठमल चैत्य शब्द का अर्थ जिनप्रतिमा कहता है और प्रथम उस ने लिखा है "चैत्य शब्द का अर्थ जिनप्रतिमा नहीं होता है; परंतु साधु अथवा ज्ञान अर्थ होता है" अरे ढूंढियो ! विचार करो कि चैत्य शब्दका अर्थ जो साधु कहोगे तो तुम्हारे कहने मुताबिक साधु के सन्मुखा नहीं देखाना, और ज्ञान कहोगे तो ज्ञान अर्थात् पुस्तक अथवा ज्ञानी के सन्मुख नहीं देखना ऐसे सिद्ध होगा ! और पूर्वोक्त पाठ में घर, तोरण, स्त्री आदि के देखने की ना कही है तो ढूंढिये गौचरी करने को जाते हो वहां घर, तोरण स्त्री आदि सर्व होते हैं। उन को न देखने वास्ते जैसे मंह को पट्टी बांधते हो वैसे आँखों को पट्टी क्यों नहीं बांधते हो ? जेठमल ने प्रत्येक बुद्धि आदि की हकीकत लिखी है। उस का प्रत्युत्तर १३ में प्रश्नोत्तर में लिखा गया है। वहां से देख लेना।
जेठमल लिखता है कि "जिनप्रतिमा को देख के कोई प्रतिबोध नहीं पाया" उत्तर-श्रीऋषभदेव की प्रतिमा को देखाके आर्द्र कुमार प्रतिबोध हुआ और श्रीदशवैकालिकसूत्र के कर्ता श्रीशय्यंभवसूरि शांतिनाथजी की प्रतिमा को देख के प्रतिबोध हुए । यत :
सिजंभवं गणहरं जिणपडिमादसणेण पडिबुद्धं
यदि मूढ़मति ढूंठिये ऐसे कहें कि "यह पाठ तो नियुक्ति का है और नियुक्ति हम नहीं मानते हैं" उन को कहना चाहिये कि श्रीसमवायांगसूत्र, श्रीविवाहप्रज्ञप्ति (भगवती) | सूत्र, श्रीनंदिसूत्र तथा श्रीअनुयोगद्वारसूत्र के मूलपाठ में नियुक्ति माननी कही है और तुम नहीं मानते हो । उसका क्या कारण ? यदि जैनमत के शास्त्रों को नहीं मानते हो तो फिर नीच लोगो के पंथ को मानों ! क्योंकि तुम्हारा कुछ आचारव्यवहार उन के साथ मिलता आवेगा।
।। इति ।
यदुक्तं श्रीसूत्रकृतांगे द्वितीयश्रुतस्कंधे षष्ठाध्ययने । पीतीय दोण्ह दूओ पुच्छणमभयस्स पत्थवेसोउ । तेणावि सम्मदिछित्ति होजपडिमारहंमिगया । दर्दू संबुद्धो रक्खिओय ।। व्याख्या-अन्यदाईकपित्रा जनहस्तेन राजगृहे श्रेणिकराज्ञः प्राभूतं प्रेषितं आर्द्रककुमारेण श्रेणिकसुतायाभयकुमाराय स्नेहकरणार्थं प्राभूतं तस्यैव हस्तेन प्रेषितं जनो राजगहे गत्वा श्रेणिक
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